पलायन …
लघु कथा
आज माला बेटे को गोद में लिए पैदल चलते- चलते सोच रही थी गांव पहुंचते ही राम भईया के पैर पकड लेगी। वो हमेशा ही कहते थे माला शहर में कुछ नहीं घरा है, मगर वो रमेश की बातों में आकर उसके साथ शहर आ गयी थी। मजदूरी तो उसे दो सौ रुपये रोज की मिल जाती थी, मगर इस हाड तोड मैहनत के बाद उसमें न खाना बनाने की हिम्मत रहती न रमेश के पास बैठ कर बतियाने की। शराब के नशे में डूबे रमेश की गाली और जबरदस्ती उसे और तोड़ देती थी।
कुछ दिनों में माला बीमार भी पडने लगी। घर का किराया, राशन और आटो के भाडा़ के अलावा रमेश की शराब के कारण कुछ भी नहीं बचता था।
वह दबे जुबान से वापस जाने को कहती तो रमेश चीख चिल्लाहट करके चुप करा देता। बेटे के जन्म के बाद वह मजदूरी के लिए भी नहीं जा पा रही थी। हमेशा भात खाने बाली माला को पंजाब का चावल न ही साग रास आता था।
अपने त्योहार भी ले दे कर छत्तीसगढ़ के मजदूर आपस में मना लिया करते थे।
सभी एक दूसरे को दिलासा देते रहते। पैसे बचाने के चक्कर में छोटी बीमारी हो या बडी बीमारी पास के वैध से ही दवा लेकर खाते थे।
वह भी क्या देता था? पैरासिटेमाल को कूट कर पुडिया बनाता, तो कभी खाने के रंग मिलाकर पानी की सुई लगा देता।
न जाने कैसे यह दवाई हर मर्ज की दवा बन जाती।
बेटे के रोने पर माला ने पूछा “बाबू तूँ गाँव चल रहा वहां काका- काकी के साथ खेलेगा।”
“हाँ माँ, वहाँ तुम रस्सी में बाध कर नहीं जाओगी न।”
“नहीं मेरे लाल वहाँ तो कहीं भी जाऊं तुझे बहुत सी माँ मिल जायेगी।”
“बस एक बार इस करोना दाई का गुस्सा
शांत हो जाये तो मैं नारियल से तेरा झाडा करुंगी। बस एक बार बच जाये बेटा, बोल न, बचेगें न।”
“हाँ माँ, पर बाबा क्यूँ नहीं आये?”
“अब बो न आयेगें बेटा, काम न मिलने पर वो इटा बेच रहे थे, पुलिस ने जेल में ठूंस दिया।”
“वो क्या होता है माँ।”
“वहाँ भी काम होता है बेटा खाना भी मिलता है।”
“अच्छा माँ हम कब तक पहुचेगें?”
“पता नहीं बेटा।”
©डा. ऋचा यादव, बिलासपुर, छत्तीसगढ़