लेखक की कलम से
अलविदा सावन …
आंखें
आसमान को
देखती रहीं
बादल
आता
उमड़ घुमड़
चला जाता
सावन
मुंह मोड़ यूं
जा रहा
खेतों में
आंखें जो
चहकनी चाहिए
भीतर ही भीतर
नम होती रहीं
अन्न के दानों को
सृजन की
कसौटी मिली
कुछ गर्म कुछ नर्म
जिंदगी रही
लता चुप क्यों हो
कुछ तो बोलो
ऐसे मौसम का
धैर्य घोलो!
©लता प्रासर, पटना, बिहार