लेखक की कलम से

मैं गांव हूं …

 

मैं वही गांव हूं जिसपर यह आरोप है कि यहां रहोगे तो भूखे मर जाओगे।

मैं वही गांव हूं जिस पर आरोप है कि यहां अशिक्षा रहती है,

 

हां मैं वही गांव हूं जिसे मेरे ही बच्चे छोड़कर दूर बड़े-बड़े शहरों में चले गए।

मैं ग्राम देवता हूं और मेरी गोद मे तेरे कुलदेवता हैं

जब मेरे बच्चे मुझे छोड़कर जाते हैं तो मैं रात भर, सिसक सिसक कर रोता हूं। मन में एक आस लिए आज भी निर्निमेष पलकों से बाट जोहता हूं…. शायद मेरे बच्चे आ जाएं….द

 

लेकिन हाय ! जो जहां गया वहीं का हो गया।

मैं पूछना चाहता हूं अपने उन सभी बच्चों से, क्या मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेदार तुम नहीं हो ? और आज की अपनी इस महादुर्गति के भी ?

हजारों मील दूर जब तुम्हें कोई सहारा नजर नही आया तो मैं याद आया। तुम पांव पयादे चल पड़े, गोद मे मेरे पोते-पोतियों को लेकर, कांधे पर कथरी लिए, माथे पर पोटली लिए।

 

अरे, मैंने तो तुम्हें कमाने के लिए शहर भेजा था और तुम मुझे छोड़ शहर के ही हो गए ?

 

तुम वहां अपना खून-पसीना बहाकर भी दुरदुराए गए, खानाबदोश रहे, इसमें मेरा कसूर कहां है ?

 

क्या तुम्हारी कमाई से मुझे घर, मकान, बड़ा स्कूल, कालेज, इन्स्टीट्यूट, अस्पताल आदि बनाने की कामना नहीं है ? ये अधिकार मात्र शहर को ही क्यों है ?

 

इस कोरोना संकट में सारे मजदूर गांव भाग रहे हैं, गाड़ी नहीं तो सैकड़ों मील पैदल बीवी-बच्चों के साथ चल दिए आखिर क्यों ? उन्हें ये विस्वास है कि गांव पहुंच जाएंगे तो जिन्दगी बच जाएगी, भर पेट भोजन मिल जाएगा, परिवार बच जाएगा।

सच तो यही है कि गांव कभी किसी को भूख से नहीं मारता। शहरों मे देने वाले कम हैं और फोटो खिंचाने वाले ज्यादा।

 

आओ मेरे लाल

आ जाओ, मैं तुम्हें भूख से नहीं मरने दूंगा।

आओ, मुझे फिर से सजाओ, मेरी गोद में फिर से चौपाल लगाओ, मेरे आंगन में चाक के पहिए घुमाओ, मेरे खेतों में अनाज उगाओ, खलिहानों में बैठकर आल्हा गाओ, खुद भी खाओ- दुनिया को भी खिलाओ, महुआ, पलास के पत्तों को बीनकर पत्तल बनाओ।

गोपाल बनो

मेरे नदी, ताल, तलैया, बाग, बगीचे गुलजार करो।

मनहर बाबा की प्यार भरी गालियां, रामजनम काका के उटपटांग डायलाग, पंडिताइन की अपनापन वाली झिड़की, नारायण साहू की आटे की मिठाई, हजामत और मोची की दुकान, बांसपट्टी में कंसार से भड़भूजे की सोंधी महक, लईया, चना, कचरी, होरहा, बूट, खेसारी ….सब आज भी तुम्हें पुकार रहे हैं।

मुझे पता है वो तो आ जाएंगे जिन्हें मुझसे प्यार है लेकिन वो ? वो क्यों आएंगे जो शहर की चकाचौंध में विलीन हो गए। वहीं घर मकान बना लिए, सारे पर्व, त्यौहार, संस्कार वहीं से करते हैं। मुझे बुलाना तो दूर पूछते तक नहीं। लगता अब मेरा उनपर कोई अधिकार ही नहीं बचा ? अरे अधिक नहीं तो कम से कम होली-दिवाली में ही आ जाते तो दर्द कम होता मेरा। सारे संस्कारों पर तो मेरा अधिकार होता है न, कम से कम मुण्डन, जनेऊ, शादी तो मेरी गोद में कर लेते।

मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि यह केवल मेरी इच्छा है बल्कि यह तुम्हारा कर्तव्य है। मेरे गरीब बच्चे जो रोजी-रोटी की तलाश में मुझसे दूर चले जाते हैं उन्हें यहीं रोजगार मिल जाएगा, फिर कोई महामारी आने पर उन्हें सैकड़ों मील पैदल नहीं भागना पड़ेगा। मैं आत्मनिर्भर बनना चाहता हूं। मैं अपने बच्चों को शहरों की अपेक्षा बेहतर शिक्षित और संस्कारित कर सकता हूं, बहुतों को यहीं रोजी रोटी भी दे सकता हूं।

मैं यहीं प्रकृति की गोद में तूम्हारे जीने का प्रबंध कर सकता हूं।

 

जो सुकून मैं दे सकता हूं वो तुम्हें कहीं नहीं मिलेगा। मैंने लाखों प्यासी-पथराई आंखों को शहरों में बालकनी से झांकते देखा है।

 

 मैं सब कुछ कर सकता हूं मेरे लाल ! बस तू आजा या समय-समय पर आता रह मेरे पास।

अपने बीवी-बच्चों को मेरी गोद में डालकर निश्चिंत हो जा, दुनिया की कृत्रिमता को त्याग दे। फ्रीज का नहीं घड़े का पानी पी, त्यौहारों- समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डाल। मोची के जूते और दर्जी के सिले कपड़े पर इतराने की आदत डाल, हलवाई की चाशनी की मिठाई, खेतों की हरी सब्जियां, फल-फूल, गाय का दूध।

 

खुशी-खुशी जिन्दगी जीन चाहता है तो आ मेरे लाल, मेरी गोद में आकर बैठ, कुछ दिन खेल, बेफिक्र हो कर जी। फिर तू भी खुश और मैं भी खुश।

मैं तुम्हारे बचपन की फुलवारी हूं, सपनों का रखवाला हूं और बुढ़ापे की चौपाल हूं।

 

प्रतीक्षारत-

 

तुम्हारा गांव

तुम्हारे पुरखों का जन्मदाता

 

©केबी सिंह, दिल्ली

लेखक सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता एवं राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के कानूनी सलाहकार व दिल्ली इकाई के महासचिव हैं।

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