लेखक की कलम से

आजाद फिज़ा की सांस …

आजाद फिजाओं में सांस ले पाना इतना भी आसान था क्या ?

एक वक्त था, डाल-डाल पर सोने की चिड़िया बैठा करती थी.

एक वक्त था, दुनिया हमसे राजनीति सीखा करती थी.

एक वक्त आया, सोने की चिड़िया गुलामी के पिंजरे में कैद हो गई.

एक वक्त आया,जब दुनिया हमारे नेतृत्व पर प्रश्न खड़े करने लगी.

बदलते वक़्त की बहाव में कुछ दिग्दर्शक भी आये ..

इतिहास के युग-पटल पर राममोहन, दयानंद, विवेकानंद कहलाये ..

स्वयं का सर्वस्व न्यौछावर कर,

दुनिया को वसुधैव-कुटुंबकम् का पाठ पढ़ाना इतना  आसान था क्या …??

आजाद फिजाओं में सांस ले पाना इतना भी आसान था क्या..??

 

एक वक्त था , गुलामी को ही हम नियति मान बैठे थे.

एक वक्त था, हीनता-ग्रंथि से अपादमस्तक हम बिंध चुके थे.

एक वक्त आया, हम हमारे अतीत की श्रेष्ठता को जान पाये

एक वक्त आया, आत्मविश्वास की लहु हमारे शिराओं में संचरित हो पायी …

बदलते वक़्त के बहाव में एक सत्याग्रही भी आया ….

आजादी की गौरवगाथा में बापू, राष्ट्रपिता, महात्मा गांधी कहलाया..

निज हित से परे जाकर,

राष्ट्रहित में स्वयं को समर्पित कर देना,

महात्मा की संज्ञा की पवित्रता को अक्षुण्ण रख पाना इतना आसान था क्या..??

आजाद फिजाओं में सांस ले पाना इतना भी आसान था क्या..???

 

 

©रमन सिंह, नई दिल्ली                                                   

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