लेखक की कलम से
गुलाब हूं मैं …
गुलाब हूं मैं
कांटों की न फिक्र मुझे
सबके मन को भाती मैं
रंगों से अपने आकर्षित करती मैं
मैं बनती प्रेम और दोस्ती का प्रतीक
मैं बनती दुल्हन का सेज कभी
मैं बनती मृतकों पर फूलों का हार कभी
कभी बन गजरा सजाई जाती जुल्फों पर
तो कभी बगिया में पौधों पर शोभा पाती हूं
खुशबू मेरी चारों ओर फैले तो
सबको अपने आगोश में मैं ले लेती
गुलाब हूं मैं
हर मौसम में खिल जाती हूं
नहीं घमंड मुझे खुदपर
मैं तो सादगी का प्रतीक हूं
कभी चाचा नेहरू के हाथों में
कभी मिल जाती किताबों में
बड़ी कोमल हूं मैं
पर कांटों संग रहती हूं
जीवन के हर रंग में रंग जाती हूं
बच्चे से लेकर बूढ़े तक
सबकी प्रिय कहलाती हूं
तभी जब ढूंढों मैं मिल जाती हूं
हां, गुलाब हूं मैं।।
©डॉ. जानकी झा, कटक, ओडिशा