लेखक की कलम से

मैं जा रहा हूँ माँ …

 

(मैं यह कविता उन लोगों को समर्पित करती हूं जिन्हें कोविड ने वक़्त से पहले छीन लिया।)

 

किसने सारी खिड़कियाँ बन्द कर दी। इतना अंधेरा क्यों है माँ? हवा को किसने रोका? मैंने न जाने कब से तुझे नहीं देखा है माँ। ज़रा करीब आओगी?

मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ। तनिक भी नहीं। प्लीज़ खिड़की दरवाज़े खोल दो। अस्पताल की चार दीवारें कालकोठरी जैसी हैं। मैं अब और नहीं सह सकता। मैं तुम्हारी गोद में सिर रखकर सोना चाहता हूँ माँ…

मेरी परी कहाँ है? जानती हो, उसके नन्हे से दो हाथ मेरे माथे पर रख दे तो मैं ठीक हो जाऊंगा? सचमुच। कोरोना मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा।

मेरा प्यार, मेरे जन्म जन्म की साथी, मेरी नीलम कहाँ गई? अगर उसने मेरे सीने पर हाथ रखा होता तो मेरे सीने का तेज दर्द ठीक हो जाता। आओ शोना, मेरे करीब आओ …

नहीं, नहीं, कोई मेरे पास मत आना। मैं ठीक हूँ। अगर तुम सब अच्छे रहोगे तो मैं ठीक हो जाऊंगा। यह भयानक रोग तुम्हें नहीं छूना चाहिए।

सारे दरवाजे और खिड़कियां खुल रही हैं। अस्पताल का कमरा, बिस्तर, ऑक्सीजन सिलेंडर, सब कुछ, सब कुछ तेज रोशनी में डुब रहा है। चिंता मत करो माँ। मैं अब सांस ले सकता हूँ। ये देखो, मेरे सीने में दर्द नहीं रहा। हाथ-पैर ठंडे हो रहे हैं। शरीर अब बुखार से नहीं जल रहा है।

डॉक्टर ने आकर कहा कि मेरी हालत गम्भीर हो रही है लेकिन नहीं, मैं ठीक हो रहा हूँ। हमेशा के लिए ठीक हो रहा हूँ मैं। मुझे अब ऑक्सीजन की ज़रूरत नहीं है। नर्स ने ऑक्सीजन मास्क उतार दिया है। मैंने अस्पताल से छुट्टी ले ली है। मैं जा रहा हूँ माँ। मैं जा रहा हूँ।

मेरे लिए कोई दुःखी मत होना। रोओ मत! बिल्कुल मत रोना। मैं ठीक हूँ अब। बिल्कुल ठीक हूँ।

 

©मनीषा कर बागची                           

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