लेखक की कलम से

दीपेंद्र के जुनून से भितिहरवा कन्या स्कूल में 4 से 400 तक पहुंची दर्ज संख्या …

बिहार के चंपारण ज़िले में कस्तूरबा गांधी की याद में बनी पाठशाला को फिर से आबाद कर दिया एक युवा दीपेंद्र वाजपेई ने। वाजपेई बिहार के बेतिया ज़िले के हैं। इसके पहले वाजपेई जयप्रकाश नारायण आंदोलन के दौरान छात्र युवा संघर्ष समिति से जुड़े। फिर महादलितों को जमीन दिलाने के आंदोलन में पूरी तरह सक्रिय थे। उनके और उनके सहयोगियों की मदद से सैकड़ों भूमिहीन दलितों को रहने के लिए जमीन मिली। इस कार्य के बाद दीपेंद्र कन्या पाठशाला के उद्धार में लगे तो यहां भी उनकी मेहनत,त्याग और सूझबूझ काम आ गई। लोगों ने खास कर ग्रामीणों ने भरपूर मदद की।

दीपेंद्र बताते हैं कि जिस भितिहरवा में कन्या पाठशाला आबाद की गई, वहां लड़कियों के लिए स्कूल की काफी जरूरत थी क्योंकि वहां पर पहले से कोई स्कूल नहीं था। यहां पर चंपारण सत्याग्रह के दौरान महात्मा गांधी ने अपना आश्रम बनाया था और वहीं पर उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी और उनकी सहयोगी ग्रामीण महिलाओं को पढ़ाती थीं। आजादी के बाद वहां पर कस्तूरबा गांधी की याद में उनके सपनों को पूरा करने के लिए कन्या पाठशाला की शुरुआत की गई थी लेकिन सरकारी सहयोग नहीं मिला तो बंद हो गई।

गांव के लोगों ने पाठशाला के लिये बाकायदा जमीन भी दी थी। इस तरह पाठशाला की जरूरत महसूस की जा रही थी लेकिन इसके लिए कोई प्रयास सफल नहीं हो रहा था। भितिहरवा में अधिकतम संख्या में थारू आदिवासी और महादलित समुदाय के लोग रहते हैं। इन समुदायों को चंपारण सत्याग्रह के पहले निलहे अंग्रेजों ने अपने काम को अंजाम दिलाने के लिए बसाया था। अंग्रेज़ उनसे मजदूरी कराते थे और जुल्म भी बहुत करते थे। मजदूरों को नंगे करके पीटते थे और महिलाओं को भी नहीं बख्शते थे।

दीपेंद्र बताते हैं कि भितिहरवा में थारू आदिवासी और महादलित समुदाय के लोग आज भी मजदूरी करने के लिए विवश हैं। उन्हें काम नहीं मिलता है तो भूखे रहना पड़ता है। ऐसे में अपनी बेटियों को दूर बेतिया भेज कर पढ़ाना उनके बस की बात नहीं थी। दीपेंद्र ने पाठशाला के उद्धार के पहले लड़कियों की शिक्षा के लिए ग्रामीणों को जागरूक किया फिर उन्हें संगठित भी किया। ऐसा करने से पाठशाला का उदय हो गया। शुरुआत में केवल चार लड़कियां पढ़ती थीं। अब 400 से अधिक लड़कियां रोजाना पढ़ने आती हैं।

पाठशाला में गांधी जी को विचारों को बहुत महत्व दिया जाता है। दीपेंद्र जन सहयोग से गाँधी की कर्मभूमि पर कस्तूरबा गांधी की स्मृति में स्थापित कस्तूरबा कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय का संचालन कर रहे हैं। प्राचार्य के रूप में उन्होंने विद्यालय की मान्यता प्राप्त करने के लिए जनता के सहयोग से 50 लाख की लागत से आधारभूत संरचना का निर्माण कराया है। अब विद्यालय की मान्यता के लिए लगातार प्रयासरत है। इस विद्यालय की मान्यता मिलने से हजारों अनुसूचित जाति व जनजाति, पिछड़े वर्ग की लड़कियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सहूलियत होगी।

दीपेंद्र ने जिस कन्या पाठशाला को आबाद किया वह कई दृष्टि से अनोखी है क्योंकि यहां लड़कियां केवल पढ़ती नहीं हैं बल्कि गांधी के एकादश व्रतों को अपनाने की कोशिश कर रही हैं। लड़कियों ने अपना बैंक भी बनाया है जिसमें अभी 65 हजार रूपए जमा है। जिसे लड़कियों ने खुद अपने भविष्य के लिए जमा किया है और जिस किसी लड़की को पैसे कि जरूरत होती है उनको आसानी से कर्ज मिल जाता है। लड़कियां समय आने पर भूख हड़ताल और धरना प्रदर्शन भी करती है। एक बार पाठशाला की लड़कियों ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की गाड़ी रोक कर उनसे स्कूल को मान्यता देने की मांग कर दी थी। स्कूल में जितने भी शिक्षक हैं उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता। वे लड़कियों के भविष्य बनाने के लिए निशुल्क अध्यापन करते है। दीपेंद्र खुद भी पाठशाला के प्राचार्य होते हुए भी कोई वेतन नहीं लेते।

दीपेंद्र ने बताया कि उनके दिल में समाज सेवा के क्षेत्र में इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के, यह देश है तुम्हारा,नेता तुम्हीं हो कल के जैसे गीत से प्रभावित होकर आए। उनको यह गाना उनकी मां ने बचपन में सिखाया था। इसलिए वे बहुत कम उम्र से ही समाज सेवा करने लगे। वे शिक्षा के क्षेत्र में काम भी कर रहे हैं और साथ ही शिक्षा विषय पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से पी एच डी कर रहे हैं ताकि शिक्षा के क्षेत्र में किसी बुनियादी काम को अंजाम दे सकें।

 

©दिल्ली बुलेटिन के लिए हेमलता म्हस्के की खास  रपट                                  

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