लेखक की कलम से
बदलते मौसम …
परिकल्पनाओं, परिदृश्यों से सुसज्जित जहां।
मौन रहने देता है कहां।
कहीं आकार उभरते मनमोहक।
कहीं शब्द उकरते सम्मोहक।
कहीं रुदन, कहीं पसरा है सन्नाटा।
कहीं दाल खत्म तो कहीं आटा।
मदिरालयों में भीड़-बढी है।
समस्याओं की ये इक बड़ी-कड़ी है!
छोटी नहीं ये अधिक बड़ी है।
जाम की कीमत गगन चढ़ी है।
अब जान की किसको पड़ी है।
शहीद कुछ अपने हुए हैं।
चूर कुछ सपने हुए हैं।
कुछ लुटे कुछ लूट गए।
और कुछ जहां से छूट गए…!!!
और कुछ जहां से छूट गए…!!!
©सुधा भारद्वाज, विकासनगर उत्तराखण्ड