लेखक की कलम से

ओस की बूंदें …

 

रात से उलझी हुई सुबह

सूर्य की पनाह में खिली है

फिर दिन की‌ परिक्रमा

उलझती जिंदगी के धागे

सहेजते हुए नर नारी

अंधेरे से उजाले

उजाले से अंधेरे

के बीच

जिंदगी तौलते रहते हैं

आओ मिलकर

हम तौलते है

मौन और मुखरता को

खोजते हैं

सहज सुलभ मुस्कुराहट

हल्की सी आहट के साथ

हवा मौसम को छूकर

मौसम का रंग बदल देती है

प्रकृति दोनों के रमणीयता से

आत्म विभोर हो खिलखिला उठती है

आंखें खोलो

समा जाओ इसमें

को जाओ प्रकृति संग

 

 

©लता प्रासर, पटना, बिहार

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