लेखक की कलम से
नहीं मिलता ….
दूर कहीं से एक मीठी सी ख़ुशबू आती है
स्रोत पता ही नहीं चलता
बहुत अहम है वह मेरे लिये
जिन्दा रहना चाहती हूं मैं
और भी कोई सारे दिन
कोई सारे राते।
उंगलियों के बैरिकेड से फिसल खो गया है बसन्त
घोर अंधेरे में उसे टटोलती फिरती हूँ मैं
पर पहुंच नहीं पाती उस तक।
मैपल के पत्तियों को हटा हटा कर
ऑक्सीजन ढूंढ रही थी
नहीं मिली।
हरे घास का गलीचा बेरंग हो गया है मेरे स्पर्श से
जानती हूँ, हर किसी के नसीब में नहीं होता बारिश में भीगना।
बबूल के जंगल में ढक गया है प्यारा सा समय
कोई नहीं है, कोई नहीं आता
डूबके मर भी जाऊं, नही आएगा बाँहे थाम ने कोई…!
आहिस्ता आहिस्ता सरक जाती है चाँदनी
डूब जाता है चाँद
बादलों में छुप जाते हैं सितारे…!
क्या ज़िन्दगी ऐसा ही होता है?
ऐसा ही होता है जीवन?
©मनीषा कर बागची