लेखक की कलम से
यही जीवन है …
हर रोज जीने के लिए मरना पड़ता है
फिर भी खुश होने का ढोंग करना पड़ता है
कितनी खामोश कितनी वीरान है मेरी रातें
फिर भी हर रात मुझको सजना संवरना पड़ता है
कितने दर्दों का समन्दर है मेरा ये दिल
फिर भी हर रोज इक नये दर्द से गुजरना पड़ता है
चाहें कितनी भी पीड़ा में रहूं हरदम
फिर भी खुश रहने का अभिनय करना पड़ता है
दर्द के नासूर से हर रोज कितना भी तड़पू
फिर भी हर रात जाग कर रोज रोना ही पड़ता है
किससे कहूं गम कौन अपना हूं कश्मकश में
यहीं सोंच सोंच तकिये को भिगोना ही पड़ता है
©क्षमा द्विवेदी, प्रयागराज