इंतज़ार …
कर तो रहे थे इंतज़ार, फिर क्या जल्दी थी जाने की,
माना तुम थे ‘आफताब’, जल्दी क्या थी नभ पाने की
कितनों की आँखों से तुम अश्क चुराए आज चले
कितने दिलों की धड़कन को तुम, लेकर अपने साथ चले
एक घड़ी तो रूक जाते, हम भी कर लेते दुलार प्रिय
जीवन की इस रेलपेल से, छुड़ा लिया क्यों हाथ प्रिय।
तुम तो हर दिल में बसते हो, फिर क्यों रूठ गए ‘इरफान’
अपने चाहने वालों को क्यों, छोड़ गए बीच जहान ?
तुम सागर की गहराई में, मिलने वाले मोती हो
तुम नेकदिल, मानवमूर्ति प्रकाशमान एक ज्योति हो।
आज विषम इस दौर में तुमने, इतना नाम कमाया है,
हर एक आँख ने सच्चा आँसू, तेरे लिए ही बहाया है।
तूने अपने कर्मो से, विश्व में फहराया परचम,
अपनी क्षमता और कला से, किया देश का नाम रोशन।
अंतिम साँस तक संघर्ष किया, बन गए एक मिसाल तुम,
“ज़िंदगी लंबी नही बड़ी होने” का, सिखा गए फलसफा तुम।
फिर भी बहुत जल्दबाजी में, कर गए सारा खेल खतम,
ओ जादूगर! अपने जादू से रच गए सारा खेल तुम ।
माना ‘अम्मी’ के थे नूर, जल्दी क्या थी मिल जाने की
माना तुम थे ‘आफ़ताब’ जल्दी क्या थी नभ पाने की ।
©डॉ रत्ना शर्मा, जयपुर