लेखक की कलम से
तसल्ली की हथेलियों में …
मैं इतनी टूटी
तब नहीं थी
न ही इतनी बिखरी थी
जब तुम जा रहे थे
वृंदावन से दूर।
विश्वास था
तुम लौटकर आओगे
तुम नहीं आये
फिर भी एक भरोसा था
मैं तुम्हारे हृदय में
निरन्तर बनी रहूँगी।
और उस दिन
जब तुम मेरी ओर
बढ़ रहे थे
मेरा हृदय उछल रहा था
स्पंदन तीव्र हो उठा था।
मुझे लगा था, तुम आओगे
मुझे अपनी बाँहों में समेट लोगे
तुम आये, एक दूरी बना कर पूछा
तुम राधा तो नहीं????
तुम्हारी आँखों में अपरिचय पढ़
मैं टूट गई
भुरभुरा कर बिखर गई थी।
मैं मुँह मोड़ निकल आई थी
सारी राह मेरी
पत्थर हो चुकी आँखों से
सूखे आँसू बहते रहे
फिर भी मैंने
तसल्ली की हथेलियों में
खुद को समेटा
कि चलो कम से कम
तुम्हें मेरा नाम तो
याद है…….
©सविता व्यास, इंदौर, एमपी