लेखक की कलम से

धुआँ ….

 

माँ ! आँखों के सामने

तुम धुआँ हो गई

धुआँ हो गयीं

तुम्हारी तकलीफ़ें

 

माँ! धुआँ हो कर

फैल गई चहुं ओर

पूरे सौर -मण्डल में

तुम सर्वव्यापी हो गई

 

माँ ! धुआँ हो कर

है अदृश्य,अस्पर्शीय

पर महसूस होती

आस -पास ,इर्द -गिर्द

 

माँ ! धुआँ हो कर

समा गई पेड़ों में

धरा में , घर में

शायद !हम सब में

 

माँ ! धुआँ हो गई

नहीं है चाहे माँ

पर माँ रहेगी

हमेशा रहेगी माँ

 

 

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़                                                             

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