दुनिया

ये एक्ट आफ गाड नहीं एक्ट आफ ह्यूमन है …

मुंबई {संदीप सोनवलकर} । इन दिनों परेश रावल की फिल्म याद आ रही है जिसमें वो भूकंप के बाद जब बीमा कंपनियां उसे मुआवजा देने से मना कर देती है तो वो ईश्वर पर ही मुकदमा कर देता है। फिल्म में वो मुकदमा तो जीत जाता है लेकिन समाज की मानसिकता नहीं बदल पाता जहां उसको भी लोग भगवान बना देते हैं। मजे की बात ये कि ये फिर कोरोना की महामारी में भी हो रहा है। पूरी दुनिया के बड़े-बड़े राजनेता किसी ना किसी की तलाश में लगे है जहां ये कह सकें कि ये सब तो मेरे नहीं उसके कारण हो रहा है।

लार्ड एक्शन ने लिखा है कि दुनिया में ऐसी कोई भी महामारी इतनी भयानक नहीं जिसके लिए इंसान खुद के अलावा किसी और को जिम्मेदार ठहरा सके। इन दिनों लिओपोल्ड कोल्हर की एक किताब द ब्रेकडाउन नेशन पढ़ रहा हूं, जिसमें दुनिया में महामारी या संकट के समय प्रागैताहिसिक काल से ही अब तक बताए जा रहे बहानों या थ्योरीस की बात की गई है।

दरअसल जब से मानव से समाज बनाया और सर्वाईवल आफ फिटेस्ट जैसी थ्यौरी पर काम करना शुरु किया तब से ही लालच, मोह, खुदगर्जी, सुरक्षा के नाम पर दूसरे की बलि जैसी बातें भी बढुती गई। इनसे ही किसी भी संकट या गलती के लिए दूसरे को जिम्मेदार ठहराने की बात सिसटम में समाहित हो गई है।

शुरुआती दौर में इंसान जब सिर्फ शिकार पर था और थोड़ा समाज बनने लगा तो काल्पनिक शक्ति को ही सर्वशक्तिमान मानने लगा। इसमें पहले ताकतवर के राज की बात आई फिर दैवीय शक्ति की और उसके साथ ही दानवी शक्ति की। आज भी यही है बीमारी के समय कुछ इसे दैवीय प्रकोप यानी एक्ट आफ गाड बता रहे हैं तो कुछ इसे शैतान का प्रकोप बता रहे हैं। कुछ प्रकृति का प्रकोप जैसी थ्योरी पर काम कर रहे हैं।

बड़े-बड़े देश एक दूसरे पर इल्जाम थोप रहे हैं। अमेरिका अपनी गलती के बजाय चीन और विश्व स्वास्थ्य संगठन को जिम्मेदार बता रहा हैं तो चीन में ही कुछ लोग शी जिनपिंग या कुछ अफरीकी मूल के लोगों को जिम्मेदार बता रहे हैं। ये बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी गांव में बीमारी फैलने पर किसी एक महिला को चुड़ैल बताकर उसे जला दिया जाता है या फिर किसी भी बड़ी घटना पर कोई एनकाउंटर हो जाता है। अगर बात बन गई तो ठीक नहीं तो फिर किसी नए की तलाश की जाती है।

भारत में भी महामारी के समय कभी मोदी, कभी बीजेपी या कांग्रेस शासित सरकार को तो कभी मजदूरों को इसके लिए जिम्मेदार बताने में समूचा मीडिया लगा है। कारपोरेट दफ्तरों में भी मंदी में लोग तलाशें जा रहे हैं जिनको जिम्मेदार बताया जा सके। उनकी छंटनी की जाएगी। उद्योग जगत इसी नाम पर सरकार से फायदे उठाना चाहता है। वो चाहता है कि मजदूर 8 के बजाय 12 घंटे काम करे ताकि ज्यादा उत्पादन हो तो घाटा कम हो। मजदूर को लगता है कि फायदा तो सेठ का ही होगा उसका तो शोषण ही होगा। अब यहां कोई पूंजीवादी होना चाहता है तो कोई साम्यवादी तो कुछ समाजवादी हो जाए लेकिन कोई ये मानने को तैयार नहीं होगा कि उसकी अपनी भी जिम्मेदारी है।

सेपियन्स लिखने वाले हरारी बाबा को फिर से एक पढ़ना चाहिए। वो भी कह रहे हैं कि अगर इस महामारी के बाद पूरी दुनिया अपने साथ-साथ दूसरे इसमे प्रकृति के बारे भी सोचने लगे तो शायद आगे दुनिया चलेगा वरना तो हम सब जोम्बी यानि मुर्दों की तरह रहेगे जो अपने फायदे के लिए पहले दूसरों को और फिर खुद को ही खाने लगेगा।

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