धर्म

भगवान शंकर और माता पार्वती की कृपा के लिए है प्रदोष व्रत

आज 18 जुलाई प्रदोष व्रत पर विशेष

प्रदोष व्रत करने से भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा सदैव आप पर बनी रहती है। शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत करने से व्यक्ति के जीवन के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं, पाप धुल जाते हैं और उसे मोक्ष प्राप्त होता है। यह व्रत हिंदू धर्म के सबसे शुभ व महत्वपूर्ण व्रतों में से एक है। प्रदोष व्रत शुक्ल व कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि पर रखा जाता है।

  प्रदोष व्रत की महिमा  

शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दो गायों को दान देने के समान पुण्य फल प्राप्त होता है। प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य है कि ‘एक दिन जब चारों ओर अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगा, व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यों को अधिक करेगा, ऐसे समय में भी जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रखेगा व शिव आराधना करेगा, उसे शिव की कृपा अवश्य प्राप्त होगी।

  प्रदोष व्रत से मिलने वाले फल  

  1. अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है –
  2. – रविवार को पड़ने वाले प्रदोष को रवि प्रदोष कहते हैं। इस दिन व्रत रखने से आयु वृद्धि तथा स्वास्थ्य लाभ की प्राप्ति होती है।
  3. – सोमवार के दिन त्रयोदशी चंद्र प्रदोषम कहलाती है। ये व्रत आरोग्य प्रदान करता है और भक्त की सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला है।
  4. – मंगलवार के दिन त्रयोदशी को भौम प्रदोष कहते हैं। इस व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।
  5. – बुधवार के दिन प्रदोष हो तो बुध प्रदोष कहलाता है, ये उपासक की सभी कामनाओं की पूर्ति करता है।
  6. – गुरुवार के दिन प्रदोष को गुरु प्रदोष कहते हैं, इस दिन के व्रत के फल से शत्रुओं का विनाश होता है।
  7. – शुक्रवार के दिन होने वाला प्रदोष शुक्र प्रदोषम कहलाता है। ये सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिए किया जाता है।
  8. – शनिवार के दिन वाला प्रदोष शनि प्रदोषम कहलाता है। यदि संतान प्राप्ति की कामना हो तो शनिवार के दिन पड़ने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए।

  प्रदोष व्रत की विधि  

प्रदोष व्रत करने के लिए त्रयोदशी के दिन प्रात: सूर्य उदय से पूर्व उठिए। नित्यकर्मों से निवृ्त होकर, भगवान श्री भोले नाथ का स्मरण करें। पूरे दिन निराहार रहकर उपवास रखने के बाद सूर्यास्त से एक घंटा पहले, पुनः स्नान आदि कर श्वेत वस्त्र धारण करें। पूजन स्थल को गंगाजल या स्वच्छ जल से शुद्ध करके मंडप तैयार करें। अब इस मंडप में पांच रंगों का उपयोग करते हुए रंगोली बनाए। पूजन के लिए कुशा के आसन का प्रयोग करें व उतर-पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठे और भगवान शंकर का पूजन करें व जाप करें-

“भव्य भवनाशाय, महादेवाय धीमते।

रूद्राय नीलकंठाय शर्वाय शशि मौलिने।

उग्रायोग्राघनाशाय भीमाये भय हारिणे।

ईशानाय नमस्तुभ्यं पशूनां पतये नमः।।”

 

भगवान शिव के मंत्र ‘ऊँ नम: शिवाय’ का जाप करते हुए शिव को जल चढ़ाएं।

  व्रत कथा  

स्कंद पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र को लेकर भिक्षा लेने जाती और संध्या को लौटती थी। एक दिन जब वह भिक्षा लेकर लौट रही थी तो उसे नदी किनारे एक सुन्दर बालक दिखाई दिया जो विदर्भ देश का राजकुमार धर्मगुप्त था। शत्रुओं ने उसके पिता को मारकर उसका राज्य हड़प लिया था। उसकी माता की भी अकाल मृत्यु हुई थी। ब्राह्मणी ने उस बालक को अपना लिया और उसका पालन-पोषण करने लगी।

कुछ समय पश्चात ब्राह्मणी दोनों बालकों के साथ देव मंदिर गई। वहां उसकी भेंट ऋषि शाण्डिल्य से हुई। ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को बताया कि जो बालक उन्हें मिला है वह विदर्भ देश के राजा जो युद्ध में मारे गए थे उनका पुत्र राजकुमार धर्मगुप्त है और उनकी माता की भी अकाल मृत्यु हुई थी।

ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को प्रदोष व्रत करने की सलाह दी। ऋषि आज्ञा से दोनों बालकों ने भी प्रदोष व्रत करना शुरू किया। एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे तभी उन्हें कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आई। ब्राह्मण बालक तो घर लौट आया किंतु राजकुमार धर्मगुप्त अंशुमती नाम की गंधर्व कन्या से बात करने लगे। गंधर्व कन्या और राजकुमार एक दूसरे पर मोहित हो गए, कन्या ने विवाह हेतु राजकुमार को अपने पिता से मिलवाने के लिए बुलाया। दूसरे दिन जब वह पुन: गंधर्व कन्या से मिलने आया तो गंधर्व कन्या के पिता को ये ज्ञात हुआ कि वह विदर्भ देश का राजकुमार है। भगवान शिव की आज्ञा से गंधर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त से कराया।

इसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने गंधर्व सेना की सहायता से विदर्भ देश पर पुनःआधिपत्य स्थापित किया। यह सब ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के प्रदोष व्रत करने का फल था।

स्कंदपुराण के अनुसार जो भक्त प्रदोष के दिन विधि विधान से शिवपूजन करता है और एक्रागचित होकर प्रदोष व्रत कथा सुनता या पढ़ता है उसे सौ जन्मों तक कभी दरिद्रता का मुंख नहीं देखना पडता।

  प्रदोष व्रत का उद्यापन   

इस व्रत को 11 या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का उद्यापन करें। व्रत का उद्यापन त्रयोदशी तिथि पर ही करना है।

 

   ज्योतिषाचार्या नमिता   

 

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