नई दिल्ली

JDU ने आरसीपी सिंह के साथ वही किया जो RJD ने लालू यादव के करीबी के साथ किया था ….

नई दिल्ली। राजद सुप्रीमो लालू यादव ने  आरसीपी की तरह पूर्व सांसद रंजन यादव को दल से निकालने से पहले राजनीतिक रूप से छोटा कर दिया। रंजन यादव दो बार राज्यसभा सांसद बने और एक बार (2009-14) लोकसभा सदस्य रहे। लालू यादव से मतभेद की वजह से रंजन यादव को राजद छोड़कर एलजेपी में जाना पड़ा। कुछ ही दिनों में जेडीयू में चले गए। 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने लालू प्रसाद यादव को पाटलिपुत्र सीट से हरा दिया। 2015 में रंजन यादव तब बीजेपी में आ गए जब नीतीश कुमार ने लालू यादव से हाथ मिला लिया। रंजन यादव ने आरजेडी के साथ जाने से साफ मना कर दिया।

जनता दल यूनाइटेड के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामचंद्र प्रसाद सिंह की सियासी तकदीर पर फिलहाल खतरा मंडरा रहा है। जेडीयू में कभी नीतीश कुमार के बाद सेकेंड मैन माने जाने वाले आरसीपी को पार्टी से निकल जाने पर मजबूर कर दिया गया। यह मामला कुछ ऐसा है जैसा 17 साल पहले आरजेडी में हुआ था। तब लालू यादव के बेहद करीबी और सबसे विश्वासपात्र कहे जाने वाले रंजन यादव के साथ जो हुआ, जदयू में आरसीपी के साथ हुई वही हो रहा है।

यह इत्तेफाक की बात है दोनों का नाम ‘आर’ से शुरू होता है और दोनों ही नेता अपनी-अपनी पार्टियों में लंबे समय तक सेकेंड मैन की भूमिका में मजबूती के साथ रहे। इतना ही नहीं राजद और जदयू दोनों के नेतृत्वकर्ता लालू यादव और नीतीश कुमार 1970 में जयप्रकाश नारायण के समाजवादी आंदोलन से निकले। बाद में ईगो की टकराहट की वजह से नीतीश और लालू अलग हो गए और दोनों  ने अपने दल के सेकंड मैन को खतरा महसूस करते हुए निकाल दिया।

रंजन यादव की तरह आरसीपी भी जदयू में नीतीश कुमार के बाद सबसे बड़े नेता बन क्योंकि काफी दिनों तक दोनों एक दूसरे से करीबी से जुड़े रहे। पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने के बाद आरसीपी जब केंद्रीय मंत्री बन गए तो नीतीश कुमार से उनकी दूरियां बढ़ने लगी। बताया जाता है कि आरसीपी जदयू और राजद की करीबी के के लिए तैयार नहीं थे। उनका का मानना था कि भाजपा के साथ गठबंधन ज्यादा फायदेमंद है।

इतनी समानताएं के बावजूद रंजन यादव और आरसीपी के मामले में एक बड़ा अंतर यह देखा गया। रंजन यादव और लालू प्रसाद के बीच तब जमकर जुबानी जंग हुई थी। लेकिन नीतीश कुमार ने जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह और प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा के सहारे आरसीपी को बाहर का रास्ता दिखा दिया।

साल 2015 में लालू यादव और रंजन यादव के बीच में जुबानी जंग को भुलाया नहीं जा सकता। लालू ने रंजन यादव को ‘मीर जाफर’ और ‘जयचंद’ का नाम देकर नीचा दिखाया था। जवाब में रंजन यादव ने लालू प्रसाद को ‘दुर्योधन” और ‘कंस’ बताया था ।

इसके विपरीत पार्टी छोड़ने के बाद आरसीपी द्वारानीतीश कुमार और जदयू के खिलाफ मोर्चा खोल देने के बावजूद नीतीश कुमार बिल्कुल खामोश रहे। आरसीपी ने यहां तक कह दिया कि नीतीश कुमार को सब कुछ भाजपा की वजह से ही मिला। चाहे केंद्र सरकार में मंत्री पद हो या फिर बिहार में मुख्यमंत्री का पद। नीतीश कुमार को सब कुछ भाजपा की दया से हासिल हुआ। आरसीपी ने कहा कि सब कुछ मेरी छवि को धूमिल करने के लिए किया जा रहा है। उन्हों ने इशारा किया कि भविष्य में वे अपन पार्टी बना सकते हैं।

जदयू के प्रवक्ता निखिल मंडल ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि जब आरसीपी का भ्रष्टाचार एक्सपोज हो गया है तब वे सीएम के  खिलाफ अनाप-शनाप बोल रहे हैं। फिर भी नीतीश कुमार इसका कोई जवाब नहीं दे रहे।

सामाजिक विश्लेषक एनके  चौधरी बताते हैं कि नीतीश कुमार एक माहिर राजनेता हैं। बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार को दरकिनार नहीं किया जा सकता। आगामी चुनाव में गठबंधन को लेकर नीतीश कुमार ने अपना विकल्प सुरक्षित रखा है। सब जानते हैं कि जेडीयू में उनकी इच्छा के बगैर कुछ नहीं होता है। उनकी चुप्पी के पीछे भी गहरा मकसद होता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि आरसीपी रंजन यादव की राह पर जा रहे थे और दोनों यह सपना देख रहे थे कि पार्टी नेतृत्व के उत्तराधिकारी वे ही हैं ।

एनके चौधरी आगे कहते हैं नीतीश कुमार ने एक तरफ राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी उम्मीदवारों को अपना समर्थन दिया वहीं भाजपा से दूरी भी बना कर रखा है। सरकार चलाने में नीतीश बीजेपी के साथ हैं लेकिन उन्होंने सेकुलर टोपी भी पहन रखा है। नीतीश कुमार किसके साथ जाएंगे यह तो आने वाला समय बताएगा लेकिन उन्होंने अभी तक बीजेपी और राजद के साथ बैलेंस बना कर रखा है।

ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर का कहना है की नीतीश कुमार की सोच का पहले से अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। नीतीश की चुप्पी के पीछे भी बड़ी वजह होती है। पटना में भाजपा की दो दिवसीय बैठक के दौरान नीतीश कुमार चुप रहे, राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह से भी वे दूर रहे।  इससे लगता है कि नीतीश के दिमाग में कुछ चल रहा है और 2024 के आम चुनाव को लेकर नीतीश बीजेपी के खिलाफ अपने विकल्प को खुला रखा है।

लोजपा रामविलास के पार्टी प्रमुख और जमुई के सांसद चिराग पासवान कहते हैं कि यह प्रकरण जदयू के भीतर बढ़ रहे आंतरिक कलह का नतीजा है।  फिलहाल जदयू में जो धाराएं चल रही हैं। एक गुट बीजेपी के साथ जाना चाहता है और दूसरा गुट अपने गठबंधन के सहयोगियों को क्षति पहुंचाने में कोई मौका नहीं छोड़ता।  चिराग पासवान ने सवाल पूछा कि आरसीपी तब भ्रष्ट नहीं थे जब वे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और संगठन को मजबूत करने की जिम्मेदारी उन पर थी? आरसीपी पर लगाए गए आरोपों का कोई मतलब नहीं है। नीतीश जी की सरकार है आरोप लगाने के बदले उन्हें एक्शन लेना चाहिए।

इधर, पार्टी के आंतरिक सूत्रों का कहना है की आरती पीसी पार्टी के अंदर अपनी समानांतर ताकत विकसित कर रहे थे। इसके कारण शीर्ष नेतृत्व का विश्वास उन्होंने खो दिया और उन्हें पहले राज्यसभा और फिर मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।  बीजेपी के प्रति आरसीपी का झुकाव भी एक कारण बना। नीतीश कुमार पार्टी के अनडिस्प्यूटेड लीडर हैं और उनके खिलाफ पार्टी किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकती।

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