लखनऊ/उत्तरप्रदेश

हार के डर से CM योगी को अयोध्या-मथुरा की बजाए बीजेपी ने गोरखपुर से बनाया प्रत्याशी, 33 वर्षों से भाजपा का है गढ़ …

गोरखपुर। यूपी चुनाव के ठीक पहले ओबीसी से अन्याय का मुद्दा इस कदर गर्माया कि भाजपा का राम और हिन्दुत्व का मुद्द ना जाने कहां छिप गया। अब तो आलम यह है कि भाजपा अपनी साख बचाने के लिए योगी के तात्कालिक सीएम को जिताने सुरक्षित सीट तलाश रही है। भाजपा की यह तलाश पूरी भी हो गई है और योगी के लिए गोरखपुर की सीट फायनल कर दी। यह एक ऐसी सीट है जहां पर कोई बच्चा भी भाजपा से खड़ा हो जाए तो वह भी पूर्ण बहुमत से जीत जाएगा, यह सीट पिछले 33 वर्षों से भाजपा का गढ़ रहा है। वहीं भाजपा व उसके सहयोगी संगठन इस फैसले को लेकर अलग-अलग तर्क दे रहे हैं। वहीं भाजपा योगी को प्रदेश के किसी भी दूसरे सीट से प्रत्याशी बनाएगी तो वह निश्चित हार जाएंगे। इससे पार्टी को लेकर दुनियाभर में बड़ संदेश जाएगा। इस किरकिरी का सामना करने से  भाजपा व मोदी सरकार बचने की कोशिश कर रही है।  

कभी अयोध्‍या तो कभी मथुरा, आखिरकार सीएम योगी के लड़ने के लिए भाजपा ने गोरखपुर सीट फाइनल कर दी है। वैसे दो दिन पहले जब योगी आदित्‍यनाथ के अयोध्‍या से लड़ने की सम्‍भावना खबरों की शक्‍ल लेने लगी थी तो गोरखपुर में भी सियासी चर्चाएं तेज हो गई थीं। भाजपा और हिन्‍दूवादी संगठनों से जुड़े लोग सवाल उठा रहे थे कि आखिर सीएम गोरखपुर से क्‍यों नहीं लड़ रहे? गोरखपुर के मेयर सीताराम जायसवाल ने तो भाजपा नेतृत्‍व से सीएम को गोरखपुर की नौ में से किसी सीट से चुनाव लड़ा देने की मांग तक कर दी थी।

पार्टी के स्‍थानीय रणनीतिकारों का साफ कहना था कि सीएम योगी गोरखपुर से लड़ेंगे तो इसका फायदा पूर्वांचल की तमाम सीटों के साथ पूरे प्रदेश में भाजपा को मिलेगा। गोरखपुर में प्रचार-प्रसार का सीएम का अपना तंत्र है। यहां भाजपा के अलावा हिन्‍दू युवा वाहिनी का मजबूत संगठन है। पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं से मिले ऐसे फीडबैक के बाद शनिवार को भाजपा ने 105 उम्‍मीदवारों की पहली लिस्‍ट में सीएम के गोरखपुर शहर की सीट से चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। इस सीट पर पिछले 33 वर्षों से भगवा का कब्‍जा है।

सीएम योगी आदित्‍यनाथ गोरखपुर सदर सीट से ही 1998 से 2017 तक सांसद रहे हैं। वह सबसे पहले 1998 में यहां से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर लोकसभा चुनाव लड़े थे। उस चुनाव में उन्होंने बहुत ही कम अंतर से जीत दर्ज की थी लेकिन उसके बाद हर चुनाव में उनका जीत का अंतर बढ़ता गया। वे 1999, 2004, 2009 तथा 2014 में सांसद चुने गए। यहीं इन्होंने अप्रैल 2002 में उन्‍होंने हिन्दू युवा वाहिनी बनाई। 2017 में उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री बनने के बाद उन्‍होंने गोरखपुर सदर संसदीय सीट छोड़ी। वह विधानपरिषद के लिए चुने गए। 2022 में वह पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे।

गोरखपुर से लड़ने के लिए सीएम को ज्‍यादा वक्‍त नहीं देना होगा। वे प्रदेश की अन्‍य सीटों पर फोकस कर सकेंगे। पार्टी के स्‍थानीय रणनीतिकारों का कहना है कि गोरखपुर के हर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा और हिन्‍दू युवा वाहिनी की अपनी टीम है। खासतौर सदर विधानसभा क्षेत्र में तो शायद ही कोई ऐसा मोहल्‍ला, कालोनी या गली होगी जहां सीएम योगी न गए हों और वहां के लोगों को न जानते हों। रणनीतिकारों के मुताबिक सीएम अयोध्‍या या मथुरा से चुनाव लड़ते तो वहां चुनाव संचालन की टीम पर नए सिरे से काम करना होता। जाहिर है चुनाव के समय पार्टी और उम्‍मीदवार सीएम का ज्‍यादा से ज्‍यादा समय अन्‍य सीटों पर चाहेंगे। मेयर सीताराम जायसवाल ने तो यहां तक कहा कि सीएम योगी आदित्‍यनाथ अपने पांच वर्षों के कार्यकाल में लगातार अयोध्‍या जाते रहे हैं। यह क्रम आगे भी बना रहेगा लेकिन चुनाव उन्‍हें गोरखपुर से ही लड़ना चाहिए था। भाजपा ने यह बिल्‍कुल सही निर्णय किया है।

गोरखपुर सदर विधानसभा सीट पर पिछले 33 वर्षों से भगवा का कब्‍जा रहा है। इन 33 वर्षों में कुल आठ चुनाव हुए जिनमें से सात बार भाजपा और एक बार हिन्‍दू महासभा (योगी आदित्‍यनाथ के समर्थन से) के उम्‍मीदवार ने जीत हासिल की है। गौरतलब है कि वर्ष 2002 में इस सीट से डा.राधा मोहन दास अग्रवाल हिन्‍दू महासभा के बैनर तले जीते थे लेकिन जीतने के बाद ही भाजपा में शामिल हो गए थे। वह तबसे लगातार इस सीट से जीतते आ रहे हैं। डा.राधा मोहन अग्रवाल के पहला चुनाव जीतने से लेकर आज तक माना जाता है कि इस सीट पर जीत और हार के समीकरण गोरखनाथ मंदिर में तय होते हैं। 1989 से पहले इस सीट पर कांग्रेस का कब्‍जा हुआ करता था। 1989 में भाजपा ने शिव प्रताप शुक्ला को गोरखपुर सदर सीट से अपना उम्‍मीदवार बनाया और वह जीतकर विधानसभा में पहुंचे। तब से उनकी जीत का सिलसिला लगातार चार चुनाव में जारी रहा। लेकिन 2002 के चुनाव में गोरखपुर की राजनीतिक परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि गोरखनाथ मंदिर के समर्थन से हिन्‍दू महासभा के बैनर तले डा. राधा मोहन दास अग्रवाल मैदान में शिवप्रताप के मुकाबले के लिए उतर आए। उस चुनाव में जीत का सेहरा डा.राधा मोहन दास अग्रवाल के सिर चढ़ा। हालांकि जीतने के कुछ समय बाद ही वह भाजपा के हो गए और तबसे भाजपा में ही हैं। उस चुनाव में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के उम्‍मीदवार रहे डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल को 38830 वोट मिले थे। जबकि समाजवादी पार्टी के उम्‍मीदवार रहे प्रमोद टेकरीवाल ने 20382 वोट हासिल किए थे। लगातार चार बार जीतने वाले शिव प्रताप शुक्ला को 14509 वोट मिले थे।

2007 का चुनाव डा.राधा मोहन अग्रवाल ने भाजपा के टिकट पर लड़ा और विजयी हुए। उस चुनाव में डा.अग्रवाल को 49714 वोट मिले। भाजपा की जीत का यह सिलसिला 2012 और 2017 में भी कायम रहा। गोरखपुर शहर में बीजेपी और गोरखनाथ मंदिर की पकड़ का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि यहां विधायक और सांसद लेकर मेयर तक पिछले कई चुनावों से उसी का कब्‍जा होता आया है। सीएम योगी द्वारा खाली की गई गोरखपुर सदर संसदीय सीट से भी उनके उत्‍तराधिकारी के तौर पर 2019 में भाजपा के उम्‍मीदवार रविकिशन ने जीत हासिल की।

हालांकि इसके पहले इस सीट पर हुए उपचुनाव में सपा उम्‍मीदवार प्रवीण निषाद विजयी हुए थे लेकिन बाद में उन्‍होंने भाजपा का दामन थाम लिया और 2019 के चुनाव में भाजपा के टिकट पर संतकबीरनगर से सांसद हुए। माना जा रहा है कि सीएम योगी आदित्‍यनाथ के गोरखपुर से विधानसभा चुनाव लड़ने का फायदा पूर्वांचल को खासतौर पर मिलेगा। गोरखपुर-बस्‍ती मंडल की बात करें तो यहां 41 सीटें हैं जिनमें से 35 पर 2017 में भाजपा ने जीत हासिल की थी। दो सीटें भाजपा के सहयोगी दलों को मिली थीं। पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि इस पूरे अंचल में सीएम योगी आदित्‍यनाथ का प्रभाव भाजपा के लिए फायदेमंद होता है। वह गोरखपुर से चुनाव लड़ेंगे तो यह फायदा पहले की तरह बिना किसी अतिरिक्‍त प्रयास के पार्टी उम्‍मीदवारों को मिलेगा।

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