लेखक की कलम से

यायावर मुनि भाखै सत् सत् …

व्यंग्य

 

“यायावर मुनि जी,  इस घोर कोरोनाकाल में तो आप भी कविया गए हैं, ”

 

“ तो तुम्हें क्या दिक्कत है ?”.

 

“ जी मुझे कोई दिक्कत नहीं, यह तो खुशी की बात है। कविता का आदिकाल था, भक्तिकाल था ….अब  कोरोनाकाल है, कल कोई और काल होगा..कविता का काल – प्रवाह रुकता ही कब है ! मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता था कि इस घोर कोरोनाकाल में देश का हरेक तीसरा व्यक्त्ति कवि है, जाग्रत कवि, एलर्ट कवि।”

 

 

मुनि जी मुस्कुराए, जैसे बुद्ध मुस्कुराए थे। उन्होंने समझाने के लहजे मेें कहा, “ देख, यह संसार एक गद्य है, गद्य का कारण है, गद्य से मुक्ति भी है, कविता गद्य से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। कोरोना का कहर अभी जीवन का सबसे बड़ा गद्य है, इससे मुक्ति हेतु दुनिया घर या अस्पताल में क्वारंटीन्ड होकर छटपटा रही है, दुनिया में  सरकारों के पास वैक्सीन नहीं है तो क्या हुआ ? कविजनों के पास कविता तो है, फिर कविता किसी वैक्सीन से तो कम नहीं । ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ में डुबकी लगाकर बाहर निकलो, न तो डाबर के किसी च्यवन ऋषि को याद करने की जरूरत रहेगी, न ही दिन – भर किसी सेनिटाइजर की। ऐसे में हरेक तीसरा ही क्यों ? सुषुप्त या जाग्रत, हरेक व्यक्ति  भी कवि हो जाए तो बुरा क्या है ? बुरा तो तो यह होगा कि इस घोर संकटकाल में अगर कोई कवि होते – होते कवि होने से बच जाए। मैं तो कहता हूँ कि कविता हरेक व्यक्ति का जीवन- सिद्ध अधिकार है…और असली स्वर्ग तभी उतरेगा जब हर घर रवि और हर घर कवि होगा, मतलब घर – घर सविता घर – घर कविता का सूत्र ही हमें स्वर्गवासी बना सकेगा।”

 

 

मैंने बीच में टोका,”मुनि जी, आप तो गद्य- विरोधी मालूम पड़ते हैं ।”

 

वे भड़क गए,” यार, तुम हमेशा मुझे गलत समझते हो। गद्य से मुक्ति का मतलब यह नहीं कि गद्य बुरा है। मुक्ति हमेशा बुरी चीजों से होनी चाहिए ऐसा कहाँ लिखा है ? और जहाँ लिखा है उसे उसे मिटाने के लिए ही तो मेरा इस धरा – धाम पर अवतरण हुआ है। कुछ अवांछनीय चीजें हैं जिनमें अच्छी – बुरी दोनों शामिल हो सकती हैं, जिनसे मुक्त होकर ही जीवन को सार – पूर्ण बनाया जा सकता है अन्यथा जीवन भर क्षार – चूर्ण लेते रहो।”

 

मैंने पूछा,” वो कैसे?” वे बोले,” बुड़बक एसिडिटी नहीं सुना ? आधुनिक मानव की सबसे बड़ी समस्या है यह। भूख से भी विकराल समस्या। गोबर – गौठा की जगह गैस पर पका खाना भकोसोगे तो वो गैस पहले कहाँ जाएगा ? पेट में ही न ?…हें  हें हें… और इस कोरोनाकाल में बैठे – बैठे तो ….।” मुनि जी के गैस – ज्ञान पर मैं घबरा गया और पूरी बात सुने बिना ही मजबूरन समझ गया। परन्तु, एक बात जो मेरी समझ में नहीं आई, वह थी -“घर – घर कविता, घर – घर सविता।”

 

 

मेरे पूछने पर उन्होंने फरमाया,  “ देखो,  सविता है ऊष्मा और उजाला, घर – घर सविता का मतलब यह कि घर – घर रौशन हो, अज्ञेय की भाषा में कहो तो हर घर रोशनी के घेरे में हो। दूसरा,  घर में मेरा मतलब रसोईघर में आग हो।  सिर्फ पेट में आग हो और चूल्हा ठंढा हो तो कहीं शांति नहीं रहती, न घर में न देश में, दुनिया की तो बात ही छोड़ो। ऐसे में तो सिर्फ क्रांति ही होती है। यह क्रांति – व्रांति खाली पेट और ठंडे  चूल्हे से ही तो शुरू होती है। जलता हुआ चूल्हा, ठंढाता हुआ पेट शांतिकाल के स्थायी आर्थिक लक्षण हैं ।”

 

“और घर – घर कवि या कविता क्यों ?”

 

” कितनी बार बताऊँ ? संकटकाल में कल्पना की उड़ान और तेज रहती है, न्यूज़ चैनलों से भी तेज। ऐसे में कोई कवि नहीं हो तो इस उड़ान को संभालना मुश्किल होगा। कल्पना अनर्थकारी भी होती है, कवि ही उसका असली मोडरेटर हुआ करता है, कोई एडमिन आलोचक नहीं।…तो कल्पना की उड़ान भी घर – घर चाहिए। चूल्हे की गर्मी के बल पर लोग अगर जीवित भी रह गए तो कल्पना- शीलता के बिना जीवित रहो या मृत क्या फर्क पड़ता है ?”

 

 

मैंने कहा, “ मुनिजी, अब समझ में आया आप जीवन से इतने लबालब क्यों भरे रहते हैं। सांगोपांग कवि होने की सचमुच सारी शर्तें और कसौटी पूरी करते हैं आप। कविता आपके  अंग – अंग से फूटती है, आपके रोम – रोम से झरती है जैसे कोई झरना पहाड़ की पोर – पोर से झरता हो। खाते – पीते,  उठते – बैठते, जागते – सोते हर वक्त कविता छूटती ही रहती है”।

 

 

मैंने इतना ही कहा था, “ आपकी कविता झरना है झरना।“ बस क्या था उनकी गठीली दार्शनिक ऊंगलियां उत्फुल्लित हो उनके खल्वाट- सपाट सिर पर फिरने लगीं। वो भी इस अंदाज में कि कविता के झरनों के लिए मानों महामार्ग प्रशस्त कर रहीं हों।  दोनों कानों के ठीक ऊपर, महामार्ग के ठीक नीचे हरियाते दो – चार बचे पेड़ों को कहीं वे झरने बहा न ले जाएं, इसकी थोड़ी फिक्र करते हुए यायावर मुनि जी फिर शुरू हो गए, “ आजकल कविता पहाड़ से झरने की भांति नहीं झरती वत्स ! वह तो अब झरती है समय या असमय, सर से बाल की तरह चुपचाप या किसी सूखते पीपल के सूखे पत्ते की तरह हवा में खड़खड़ाकर।”

 

 

वे तनिक गुस्सा भी हो गए थे। मुझे उनके गुस्से के ग्राफ का गति – पथ मालूम था। लाल – पीला होते थे, फिर लाल गायब हो जाता और मुनिजी सिर्फ पीले – पीले रह जाते थे…पीताम्बर ।

 

उन्होंने एक दिन पूछा भी था,” जब मैं तुम पर किसी बात या हरकत को लेकर जोर – जोर से चिल्लाता हूँ तो तुम पहले की तरह अब नहीं चिल्लाते हो, न तो थरथर कांपते हो, तुम इतने कूल, काम, शांत कैसे हो गए भई ?

 

मेरे मुंह से सच्चाई निकल गई – पहले जब मैं जब अपने दफ्तर में बाॅस के पास जाता था, वह मेरी नाकामियों पर, मेरे निकम्मेपन पर खूब चिल्लाता था। मेरी बी पी की तो मत पूछो मुनिजी, एक दिन मैं उनके सामने थोड़ा भी घबराया नहीं, वह चिल्लाए जा रहा था, मैं बुद्ध की तरह मुस्कुराए जा रहा था और मैं बोले जा रहा था- सर, कितना भी जोर लगा लो, थक जाओगे पर मैं विचलित होनेवाला नहीं हूँ अब, दफ्तर आते ही बी पी की गोली आज से शुरू किया हूँ, जितना चिल्लाओ सर, कोई फरक नहीं , अलबत्ता….!”

 

मेरी आप – बीती सुनकर मुनि जी थोड़ा नरमाए और थोड़ा विक्षुब्ध भी होकर बोले,

 

“तुमलोग हमेशा मेरी कविता को गलत समझते हो।”

 

मैंने पूछा, “ वो कैसे ?”

 

उन्होंने कहा, “ मेरी कविता नहीं है, समझो यह एक अजायबघर है, म्यूजियम।” सुनकर मैं भौंचक रह गया।

 

फिर पूछा तो उन्होंने बताया, “ देखो आज जो भी बाहर भौतिक जीवन और  जगत् में विलुप्त हो गए हैं या विलुप्तप्राय हैं वे सब अब मेरी कविता में मौजूद हैं, बिल्कुल  जिंदा एवं दुगुनी हरकत के साथ।”

 

मैंने फिर पूछा,  “ मसलन ?”

 

वे बोले,  “ जैसे डायनासोर अब दुनिया में नहीं है लेकिन वह अब कविता में है।”

 

“वो कैसे?”

 

पूछने पर वे बोले, “तुम मेरी कविता के ढांचे या संरचना को गौर से देखो, उसमें डायनासोर की आकृति उभरेगी, और गौर से देखने पर तुम उस आकृति को दौड़ते या उड़ते भी देख सकते हो।”

 

उनकी कल्पना – शक्ति ने मुझे तत्काल डरा ही दिया। फिर भी मैं संभला।

 

मैंने फिर पूछा,  “ यह तो बस एक मिसाल है।”

 

फिर उन्होंने कहा, “ सही कहा तुमने, लेकिन और कितना गिनाऊं ?”

 

वे कुछ क्षण के लिए रुके और फिर कहने लगे,  “ देख, आज नदी और  जंगल खत्म हो रहे हैं लेकिन कविता में नदियों का जाल बिछ रहा है, जंगल भी बेतहाशा उग रहे हैं। कविता में नदियां उफान पर हैं, खतरे के निशान से ऊपर, कविता और कवि दोनों ऊब – डूब रहे हैं। और बाहर देखो, कितनी नदियां हैं जो पानी के लिए बारिश में भी तरसती हैं।”

 

मैंने कहा, “ मगर सरकार ने तो नदियों के जल – धारण की समानता के मौलिक अधिकार के तहत बहुत पहले ही नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई है।”

 

वे बोले, “ तुमने सही कहा लेकिन इसमें भी देर हुई। सरकार को पहले पता कहां था कि नदियां जोड़ी जा सकती हैं जबकि ‘नदियां जोड़ो’ का काम कविता में पहले से चल रहा है यह परिकल्पना तो सामने तब आई जब एक कल्पनाशील आदमी या  कवि के नेतृत्व में सरकार बनी और पहली बार कविता में देश और पर्यावरण का भविष्य ढूंढने का उद्योग हुआ।”

 

 

बात और भी रोचक तब हुई जब वे जंगल पर बोलने लगे, “ जंगल तो अपनी पुश्तैनी जगह से बेदखल होकर सत्ता और राजनीति में भी घुस गया है।”

 

“ कैसे’ के जवाब में उन्होंने फरमाया , “ जंगल राज नहीं सुना है ?”

 

“ जंगल राज सुनना क्या यायावर जी, वो तो देख चुका हूँ और देख भी रहा हूँ, “ मैंने कहा ।

 

“ कविता में तो इससे ज्यादा जंगल आया है, और भांति – भांति के कवि इसमें विचरण कर रहे हैं। शाकाहारी, मांसाहारी और सर्वाहारी या हिंसक – अहिंसक सभी तरह के”।

 

मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। बाबा समझाने लगे, “ देख इसकी शुरुआत होती है तब जब जंगल में एक कोने से आवाज आती है – ठांय – ठांय धांय – धांय यानि जंगल में अहिंसक – आक्रामक प्राणी के आधिपत्य की आधिकारिक घोषणा । ये हैं वीर रस के कवि, मार – धार एवं एक्शन से भरपूर कविता। इनकी कविता की मूल प्रवृत्ति है तामसी। मातृभूमि और देश के लिए तामसी प्रवृत्ति अथवा हिंसा का रास्ता यहां वरेण्य है।”

 

 

“ लेकिन एकाएक आक्रामकता या हिंसा के जंगल में भक्ति की खंजड़ी और समर्पण का तंबूरा कैसे बजने लगा?” – मैंने पूछा।

 

“ देखो, आक्रामकता टिकाऊ नहीं होती और जब उसकी व्यर्थता का ज्ञान होता है तो चेतना उच्चतर और श्रेष्ठतर प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख होती है, युद्ध और मार – काट की व्यर्थता का बोध ही तो अर्जुन को समर्पण की ओर उन्मुख करता है जो भक्ति की पहली सीढ़ी है, ये बात अलग है कि कृष्ण ने उसके इस बोध को पलट दिया यह बताकर कि युद्ध या हिंसा समय की मांग है अन्यथा अर्जुन भी कोई भक्त ही कहलाता, योद्धा नहीं”।

 

 

मैं उनकी व्याख्या पर हैरान था। लेकिन फिर पूछा, “ परन्तु भक्ति काल में जंगल कहां है ?”

 

 

वे बोले, “ बुड़बक,  भक्ति काल के कवि शुद्ध शाकाहारी और अहिंसक प्राणी है। वे तो मृग हैं, और उन्हें पता चल गया है कि कस्तूरी उनके नाभि में है इसलिए वहां एक शाश्वत विश्रांति है और गहन शांति भी। भक्ति से उनका विचलन तब होता है जब रति – श्रृंगार के रीति – पपीहे जंगल में पीं पीं करते हैं। कुछ काल तक जंगल बड़ा प्यारा और खूब हरा – हरा दिखता है। नृत्य और उत्सव का मुजरा एकाएक थमता है जब जंगल में ऐसे कवि – प्राणी का आगमन होता है जिसे न आक्रामकता की दहाड़ पसंद है न ही भक्ति – मुक्ति का  करुण – निष्काम स्वर, और न ही समय और  समाज से अलग-थलग विशुद्ध श्रृंगार  – भोग – लीला।  इस प्राणी की सारी चिंताएं इसी जीवन की हैं, बस समझ लो ये इस जंगल की चिड़ियां हैं जिन्हें अपने घोंसले की भी चिंता है और स्वच्छंद उड़ान के लिए नित नए आसमान की खोज भी करनी है, घोंसले और आसमान के बीच इसी आपाधापी में दाने भी चुनने हैं ताकि आज की पेट – पूजा हो सके। कल के लिए कल सोचेंगे।  यह है आधुनिक जंगल का कवि, जंगल की आम भाषा में जिजीविषा की कविता लिखता हुआ।” उनकी इस जंगल – मीमांसा पर मैं हैरान था।

 

“तो अब समझा कि आपकी कविता में जंगल क्यों है और आप किस तरह के कवि हैं।”

 

मुनिजी जी जैसे खुद पर हँसे और दांत निपोडकर बोले, “ कवि नहीं, कोबी बोलो”।

 

मैंने पूछ ही लिया,“ कोबी?  पत्ता या फूल ?” वे बोले, “ जो समझो, लेकिन वो दिन दूर नहीं जब न रहेगा पत्ता, न ही रहेगा फूल, सब तरफ होगी सिर्फ धूल ही धूल”। मैं उनकी इस भविष्यवाणी में भी कोई  कविता ढूंढने लगा और वे अपनी कविता में कुछ और ढूंढने में व्यस्त हो गए।   □□□

  ©दिलीप दर्श, गोवा                                                                                           

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