लेखक की कलम से
वक्त का मारा …
वो प्यासी आंखों से शून्य में तक रहा है
खोये हुए सरमाये को ढूंढता
वक्त ने उसे एक खेल दिखाया है
कभी एक दरिये का मालिक था अश्रुओं की आग में सूख गया है.!
कई सपनों को परवाज़ में लिए घूमता था सब धुआं बनकर उड़ गया है
एक बवंडर सा बहता था अपनी मस्ती में समय की आंधियों में खामोश हो गया.!
एक पीड़ अब ठहरी है उसके होंठों पर
चिल्लाना चाहता है दर्द के कतरों में दब गई है आवाज़ अब,
चर्राये तन से लिपटी है भूख की वेदना
भटक रहा है खाली जेब लिए.!
बदनसीब किसके भरोसे चले अब छिन ली वक्त ने बैसाखी सुख की
मन खाली आसमान सा खुशियों की बदली ढूंढ रहा है।
जी तो रहा है पर ज़िंदा कहां है,
सांसों को गिनते वक्त का मारा एक आम इंसान ज़िंदगी का बोझ ढोते गम पी रहा है।
©भावना जे. ठाकर