लेखक की कलम से
ये मेरे ख्वाबों का शहर है…
अंधियारे में
छुप कर जहान से सारे,
खुली पलकों से
ख़्वाबों की दुनिया तैरती हैं,
इस ख़्वाबों के शहर में
मेरी नज़र उनसे मिलती हैं।
मैं पलकों की खिड़की
बन्द कर लेती हूँ,
कपोलो में हया बिखर जाती हैं।
फिर बेचैन होता हैं हिय,
अन्तर्मन से आवाज़ आती हैं..
“यह मुमकिन नहीं कभी,
कैसे तू ये सब सोच पाती हैं??”
मैं ढुलक जाती हूँ
बिस्तर की आग़ोश में।
मूंद लेती हूँ पलकें
और कहती हूँ खुद से,
“नहीं हैं मुमकिन, तो नहीं ही सही।
ये मेरे ख़्वाबों का शहर हैं,
जीने दो कुछ पल यहीं कहीं।”
©वर्षा श्रीवास्तव, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश