लेखक की कलम से

बचत…

सुबह आंख खुली तो बाहर बहुत शोर था। सामने अनिकेत के घर के बाहर पुलिस और मुहल्ले वाले, खिड़की से  कुछ स्पष्ट नहीं दिख रहा था जल्दी से नीचे उतर सुधा आनन फानन अनिकेत के यहां पहुंची तो पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई, पुलिस अनिकेत को हथकड़ी के साथ ले जा रही थी अंदर जाकर देखा अनिकेत के माता-पिता  खून से लथपथ पड़े थे।

पूछताछ पर पता चला की यह सब अनिकेत का किया हुआ है। मानवीय संवेदनाओं का खून क्या कोई अपने माता-पिता को इस क़दर खत्म कर सकता है। पता चला अनिकेत पर कुछ कर्ज बाकी थे और उस कर्ज को चुकाने के ख़ातिर उसने अपने माता-पिता को अपने पैदा करने के क़र्ज़ से इस तरह मुक्त कर दिया। त्राहिमाम। सुधा आज की युवा पीढ़ी और आधुनिक सोच को लेकर परेशां थी। परेशां थी उन रिश्तों की बचत को लेकर थी जो डिजिटल होते आधुनिक समाज में एकांत पसन्द हो रहे थे जो सिर्फ खुदगर्ज़ हो रहे थे पर अनिकेत तो इस ज़माने का नहीं था, फिर यह कदम क्यों?

सीधा सा जवाब था खुदगर्ज़ी और स्वार्थ, हम सब तरह की बातें करते हैं हर तरह के संस्कार ठूस-ठूस कर थोपते है। और अपने अपनों के लिए कई सारी संवेदनाएँ रखते हैं, बचत करना सिखाते हैं आज इस हादसे से तो यही लग रहा था की काश हम इन्हें खुदगर्ज़ी और स्वार्थ को भी तिलांजलि देना सीखा देते, क्या यह रिश्तों की बचत करने में सहायक नहीं होता। काश पैसे की महत्ता को भी तुच्छ श्रेणी में रखना सीखा देते, तो शायद हम इस तरह के अपराधों से बचत की गुंजाईश नहीं रखतें। काःश पैसे की जगह हम रिश्तों की बचत करतें काश की हम बच्चों को यह शिक्षा देते की नैतिक मूल्यों की बचत पैसों की बचत से कहीँ ज्यादा जरूरी है, सुधा नम आँखों से अनिकेत  ओ उसके घर को देख रही थी और एक प्रण भी की आज स्कूल में वह पहला पाठ रिश्तों के अनमोल बचत को लेकर ही पढ़ाएगी आखिर शुरुआत तो कहीं न कहीं से करनी ही होगी, तो खुद से क्यों नहीं…!

 

©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ                                              

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