घोर अपराध प्रेम ही था!…….
तुम अपने नरम होंठों से
बंसी में सांस भरते-भरते
मिठास की सुधा बहाते थे
उन्हीं होंठों पर ज़हर का लेप लगाकर
मेरे होंठों को चूमने लगे तो
तुम्हारी बांसुरी के मधुर नाद पर
बसती स्वर्ग की वो पंछी
तड़़प-तड़़प कर मरने लगी!
दहकती धूप भरी एक दोपहर
रेगिस्तान की ओर निकल पड़े उस मुसाफ़िर को
आंधी-तूफ़ानों से विचलित समुन्दर जैसे
दो महायुद्धों का सामना करना बाक़ी है
और एक युद्ध में हार दूसरे में मृत्यु
निश्चित है!
मधुमक्खी के मधु चूसकर उड़ जाने के बाद
फूल धीरे-धीरे मृत्यु को गले लगाने लगा!
किसी भयावनी रात में
कोई धुआँ उगलते दुष्ट हाथ
छत्ते से शहद छीनकर ले जाने लगे
तब भ्रमर का भरम टूटा होगा!
किसी कवि की शिकायत है
कि इस शाम का
रुधिर राग-रंजित अंबर
धरती के जख़्मों को प्रतिफलित कर रहा है!
वैसे कवि को
रात की कालिख रिसते रास्तों पर
पागल कुत्ते दौड़ा रहे हैं!
महाराज…!
तुम्हारे कटघरे में यूँ खड़ा कर
सूली पर चढ़ाने लायक
घोर अपराध के लिए
और कितना खोजते हो?
लिखवा दो प्रेम है
प्रेम ही है!
©मीरा मेघमाला, कर्नाटक