लेखक की कलम से

भावनाएं और सीमाएं …

भावनाएं मनुष्य जीवन का आधार है। इसके बिना मनुष्य मशीन तो कहला सकता है, किंतु इंसान कतई नहीं। इसी को कई स्तरों पर हम महसूस भी करते हैं, लेकिन इन भावनाओं के आवेग को भी नियंत्रित करना परमावश्यक होता है। वरना जैसे सागर अपनी मर्यादा तोड़ दे तो तबाही का मंजर दिखलायी देता है। कुछ ऐसा ही हाल उस मनुष्य का भी हो जाता है, जो भावनाओं पर अंकुश लगाना न जानता हो। वर्तमान समय में तो यह और अधिक जरूरी भी है, जहाँ कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से समूचा विश्व मुकाबला कर रहा है। ऐसे में अपनों और आस-पड़ोस की चिंता रहना स्वाभाविक है। पर यह चिंतित भावनाएं परिस्थितियों का ज्ञान न रख अनियंत्रित हो जाए तो हमें ही नहीं दूसरों को भी तकलीफ होती है।

कुछ दिनों पहले होली के पर्व पर किसी बिल्डिंग के एक व्यक्ति ने इसी भावनात्मकता के आवेग में डूबकर इमारत के सभी घरों में सपरिवार जाकर होली की मुबारकबाद दे आया। पुराने समय की परंपराओं का ज्ञान बांट वह खुशी-खुशी अपने घर आ गया। अभी पता चला कि उस इमारत के तीस व्यक्ति कोरोना की चपेट में आए हैं। इमारत सील कर दी गयी है। होली की सद्भावनाएं बाँटने वाला वह व्यक्ति परिवार सहित एकांतवास (क्वांरैंटाइन) काट रहा है। अब कारण कुछ भी हो सकता है पर निशाने पर उसे ही रखा जाएगा, यह तय था। यह उदाहरण हमारी इसी उद्दाम भावनाओं का प्रतिफल है। ये भावनाएं हमारी बुद्धि को अनसुना कर अपनी ही रौ में बहती रहती हैं, लेकिन निरी बुद्धि भी हमें स्वार्थी और व्यावहारिक बना देती है। इसलिए दोनों का सही तालमेल रखना बेहद जरूरी है। भावनात्मक रूप से मूर्ख बनने या दूसरों पर भावनात्मक रूप से निर्भर रहने से अच्छा है कि हम अपनी समस्याओं और भावनाओं के डॉक्टर स्वयं बन उनका उपचार करें। जीवन में नियंत्रण बेहद जरूरी है चाहे वह हमारी भावनाएं हो या कोई व्यसन।

©राजेश रघुवंशी, मुम्बई                       

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