लेखक की कलम से
धीरे-धीरे…
झुकी-दमित, दबी आंखें अब आशावान हो रही है
जिन सुरखी-चुने की मजबूत दीवारों पर आपने अविश्वास और झूठ की नोनी लगाई थी
वो अब भरभरा रही है
एक दिन सब धूल-धक्कड में उड़ जाएंगे।
धीरे-धीरे
सैकड़ों साल पुराने झूठ, भ्रांतियों के अवशेष।
पर इसके लिए हम सभी को धर्म, जाति से ऊपर उठकर इसां बनना होगा।
©डॉ साकेत सहाय, नई दिल्ली