टैग क्यों किया
व्यंग्य
सतयुग, द्वापर , त्रेता, कलयुग, भटयुग के बाद अभी फ़ेसबुकिया युग चल रहा है. जो फेसबुक पे नहीं है, वह आउटडेटेड है. और जो आउटडेटेड है, वह वास्तव में है ही नहीं वस्तुतः थोबड़ापोथी पे उपस्थिति व्यक्ति के जीवित होने का प्रमाण पत्र है.
अब जब यह थोबड़ापोथी जीवित होने का प्रमाण पत्र है, तो लोग एक – दूसरे को यह संदेश देने के लिए कि वे जीवित हैं – टैग कर देते हैं. सारे फसाद की जड़ बस इसी ‘टैग’ करने से शुरू होती है. यानि कि सारे फसाद की जड़ मनुष्य का ‘जीवित’ होना है. जीवित हैं तो खुद को जीवित साबित करना भी जरूरी है और खुद को जीवित साबित करने के लिए दूसरे को टैग करना और भी जरूरी है. जैसे ही आपने किसी को टैग किया, अगला समझ जाता है कि आप जीवित हैं. अब तो लोग सोते-जागते, संडास चिंतन करते, हर- पल हर- क्षण एक-दूसरे को टैग कर रहे हैं. आवश्यकता से अधिक टैगियाने के कारण टैगित व्यक्ति खीझ भी निकालता है. साहित्यकार मित्र टाइमलाइन पे जाकर प्रतिक्रिया देते हैं – ‘ साहित्येतर सामग्री में मुझे टैग ना करें.’ इस प्रकार के संदेश में एक अप्रत्यक्ष चेतावनी रहती है कि , ज्यादा टैग करोगे तो अमित्र कर दिए जाओगे. बुद्धिजीवी वर्ग के लोग इस प्रकार से चेतावनी देते हैं – ‘ सिर्फ सामाजिक सरोकारों से संबंधित विषयों में ही मुझे टैग करें.’
हमारे एक लेखक मित्र गाहे- बगाहे मुझे टैग करते रहते हैं. थोबड़ापोथी का वर्चुअल वाल मेरी व्यक्तिगत संपत्ति है और किसी को भी मुझे टैग करने से पहले मेरी अनुमति लेनी चाहिए, ऐसा मेरा मानना है, पर मित्र लोग कहाँ मानते हैं. टैग करने के बाद इनबॉक्स में एक मैसेज आ जाता है – ‘ एक धांसू पोस्ट पे टैग किया हूँ, लाइक और कमेंट की आशा में.’ यानि कि जबरन लाइक और कमेंट करवाने का खेल चल पड़ा है. लाइक और कमेंट के खेल में एक चेन मार्केटिंग कंपनी ने जमकर पैसा बनाया और नौ दो ग्यारह हो लिया.
थोबड़ापोथी की एक महिला मित्र एक कार्यक्रम में मिलीं. पहला प्रश्न उन्होंने ठोका – ‘ आप मेरी किसी भी पोस्ट को कभी लाइक क्यों नहीं करते ?’
मैंने बात बदलने के गरज से कहा – ‘ आप तथा आपकी पोस्ट पर तो 1008 लाइक भी कम पड़ जाए, बस मैं सोशल मीडिया पे थोड़ा कम सक्रिय रहता हूँ.’
‘ क्यों झूठ बोलते हैं, रात के दो- दो बजे तक आप थोबड़ापोथी पे लॉगिन दिखते हैं.
मैंने पिंड छुड़ाने के लिए कहा – ‘मोहतरमा भविष्य में आपकी हर पोस्ट को बिना नागा लाइक करूँगा.’
‘ और कमेंट? ‘
‘ जी हाँ, हर पोस्ट पे कमेंट भी जरूर मारूंगा.’
हालांकि कुछ लोग टैग करके बिजनेस शुरू कर देते हैं. मेरी बिल्डिंग में रहनेवाली एक मोहतरमा ने घर में साड़ियों की बिक्री का काम शुरू किया तथा तरह- तरह की साड़ियों की डिजाइन के साथ मुझे टैग करना भी प्रारंभ कर दिया. एक दिन मेरे बॉस ने भी मुझ पर कमेंट मार डाला – ‘ आजकल जल्दी घर जाने के चक्कर में लगे रहते हो, साड़ियों का बिजनेस शुरू किए हो क्या ?’ अब इस साड़ी बेचनेवाली मोहतरमा को ब्लॉक करके राहत की सांस ले पा रहा हूँ.
हालांकि रसूखवाले मित्र जब टैग करते हैं तो सुखद अनुभूति होती है. विदेश में बसे हुए या कार्यरत मित्र जब टैग करते हैं तो अच्छा लगता है. लगता है बंदा सात समंदर पार जाकर भी भूला नहीं है. वैसे भी विदेश में रहने का एडवांटेज तो बंदे को मिलना ही चाहिए. जब दिल्लीवाले टैग करते हैं तब तो सीना छप्पन इंच चौड़ा हो जाता है. गर्व की अनुभूति होती है. लगता है कि अपनी पहुँच दिल्ली तक है. किसी पत्र- पत्रिका के संपादक जब टैग करते हैं, तब तो मैं सातवें आसमान पर पहुँच जाता हूँ. खुद को धर्मवीर भारती नहीं तो कम से कम उनका वंशज तो मानने ही लगता हूँ. मेरठवाले जब टैग करते है तो विश्वास हो जाता है कि मेरा व्यंग्य संग्रह अब छप जाएगा. कोई ब्यूरोक्रेट या अधिकारी जब मुझे टैग करते हैं तो मैं खुद को पावरफुल समझने लगता हूँ. किसी को भी ‘देखलेने’ वाली फीलिंग से मन लबरेज हो जाता है.
तो टैग के खेल की असलियत भी यही है. एक- दूसरे को लोग झेल रहे हैं. तू मेरी पोस्ट लाइक कर, मैं तेरी लाइक करता हूँ. तू मेरी रचना पर कमेंट कर, मैं तेरी रचना पर करता हूँ. तू मुझे प्रेमचंद की परंपरा का बता, मैं तुझे रेणु का उत्तराधिकारी घोषित करता हूँ. तो भैया , एक- दूसरे को भ्रम में रखने में बुरा क्या है ? टैगियाते रहिए.
©अभिजित दूबे, पटना