औकात …
(लघुकथा)
– अरे जानकी, अब चुप हो जा। अब रोने से क्या फायदा, बता?
– हाँ जी, आप ठीक कह रहे हो। अब क्या फायदा? आप तो हमेशा समझाते हो। ताव में मत आया कर, गुस्से से फायदा नहीं। न ही जल्दबाजी से।
– हा हा हा … मगर, मेरे 3500 पानी में डालने के बाद ही तुझे समझ में आया है न, चलो देर आये दुरुस्त आये।
– अब, चुप हो जा भाग्यवान !
– हाँ जी, उन फेरी बालों के जाने के बाद। जब चादरों को देखी तो सर पकड़ के बैठ गयी। कितनी आसानी से उन्होंने मुझे बेवकूफ बना दिया। अंदर में पाच चादर थी जो ककि खराब क्वालिटी की थी।
– अच्छा, क्या बोला, उन्होंने बता भला?
– बाहर से तो लग रहा था बंडल में आठ- नौ चादर हैं। पहले को खोल के दिखाये और आठ सो में ले लो बोले। पहला चादर तो बहुत अच्छा था। मैं बोली बहुत से बहुत पाँच सो मैं दे दो। वो बहस करने लगे।
फिर नराज हो कर बोलने लगे, पूरा बंडल 4000 में ले लो। मुझे गुस्सा दिलाने लगे। यहाँ तक कि कह दिया आपकी औकात ही नहीं। मैं 3500 में भी पूरी गठरी दे दूँ। तो भी आप ले नहीं सकते।
– औकात नहीं रहती तो रोकते क्यों हो?
– समझा, इतना सुनते ही खून खौल गया होगा तेरा और मुन्ने की गुल्लक तक तोड़ के, ये सारे चादर ले लिए। फिर तुमने है, न जी…???
– चलो छोड़ो। अब बस, याद रखना, सब को अपनी औकात दिखाने की जरूरत होती है, न सब जगह गुस्सा दिखाने की।
– जी, मैं तो समझ ही गयी हूँ, आज से।
©डा. ऋचा यादव, बिलासपुर, छत्तीसगढ़