मार वक्त की …
“जब भी लगती थी जोरों की भूख,
माँ दौड़ कर जाती रोटी बनाने।
जब भी मैं थाली आगे करती थी,
माँ औरों की थाली में रोटी रखती।
कुछ तो साज़िश प्रभु तेरी भी होगी।
मैंने कहा मुझको आगे है पढ़ना,
माँ के लिए भी है कुछ करना।
सबने मेरे हाथों में मेहंदी लगा दी
दुल्हन बना कर मेरी शादी रचा दी।
कुछ तो साज़िश प्रभु तेरी भी होगी।
खिल गए मन में खुशियों के फूल।
सजने लगे मन में साजन के सपने।
तभी ठोकर मारी कुदरत ने अपनी।
पल भर में मुझको अभागिन बना दी।
कुछ तो साज़िश प्रभु तेरी भी होगी।।
फीकी नहीं हुई थी मेंहदी की लाली।
न कर पाई साजन से दिल की बातें।
नहीं देखा मैंने उनको, नज़र भर के।
पल भर में मेरी माँग से सिंदूर मिटा दी।
कुछ तो साजिश प्रभु तेरी भी होगी।।
कल तक थी मैं बेटी किसी और की,
न कर पाए जीवन में कोई सपने पूरे,
न देखा दुनिया को,अपनी नजर से,
आज समाज की जिम्मेदारी बना दी।
कुछ तो साजिश प्रभु तेरी भी होगी।।
न थी मेरी गलती, न कोई शिकायत ,
देखा इस जहाँ को,दुनिया की नजर से।
ठोकर लगी फिर भी उफ तक न की मैंने ,
मंजिल मिलने से पहले तुमने साथ छोड़ा।
कुछ तो साजिश प्रभु तेरी भी होगी।।”
©अम्बिका झा, कांदिवली मुंबई महाराष्ट्र