पेड़ की व्यथा …
मैं हूं बुद्धा वृक्ष जीर्णशीर्ण
अपनी काया को लिए खड़ा हूं
सदियों से देख रहा हूं आते जाते मुसाफिरों को
आज न जाने क्यों अपने पर फ़क्र होता हैं
आज प्यार कुछ पाया है राहगीर आज रुकते हैं
मैंने अब तक सब दिया ही हैं
आज ये जीर्ण काया लिए खड़ा हू
मिला जो प्यार मुझे आप सब का
आज दोस्त सभी को बना लिया मैंने
जो भी यहां से गुजरता हैं स्नेह दे जाता हैं
तुम भी आज रुकी मेरे संग इस तस्वीर मे
खुश हुआ आज मै भी अपनी जीर्ण काया पर
मैं हूं सपनों का सतरंगी सा पेड़ था कभी
हरा भरा फल फूलों से लधा हुआ
मैं भी जीवन के गीत गाता था खुश था
अपना सब अर्पण करता था ईश्वर की इच्छा है सब
अब जो भी गुजरता हैं स्नेह दे जाता है
भीतर चल रहे सभी द्वंद्वों से मुक्ति सी मिलती हैं
स्वतः ही बिखरे सपने सिमटे से लगते है
तब भी मैं था अब भी मैं गर्व से खड़ा हुँ न जाने कब तक
कहीं कुछ अव्यक्त सा कही कुछ व्यक्त सा
कुछ अनछुए से दर्द मेरे कभी पीड़ा से देते है
ढूंढता हूं आज भी वो पुराने लम्हे
स्वयं ही सुलझते हुए स्वयं ही उलझन भी मैं ही हूँ
उलझन का हल भी हूँ क्योकि बूढ़ा वृक्ष हूं मैं
पुराना, जर्जर, उदास सा सीधा खड़ा हूँ आज भी
जिन्हें शब्दों में रूप देकर कागज पर उकेरा गया आज
खिल गई है मुरझाई मेरी मुस्कान आज आपकी कविता मैं …
©डॉ मंजु सैनी, गाज़ियाबाद