लेखक की कलम से

तू बेशकीमती नगीना है …

स्त्री सृष्टि की संचालिका है स्त्री के वजूद से ईश रचता है संसार, स्त्री के अस्तित्व से संगीत बहता है जिसकी लयबद्ध ध्वनि से सारी ऋचाएँ रोशन है।

तू उर्जा है आँच है, तू प्रेरणा है तू पर्याय है कोई सिगरेट नहीं की आधी अधूरी सुलगती हुई कुचल दी जाए नहीं कोई डिस्पोज़ेबल चीज़ की उपयोग किया ओर फेंक दी जाए।

तू आईना है इतराती चल वो दिन गए वो बातें पुरानी हुई जब स्त्री की परिभाषा अबला, बेचारी, लाचार, बेबस की थी आज की नारी का अपना एक आसमान है जिसमें उड़ सकती है बिना कोई बंदिश के, खुद का एक परिचय है अपने चेहरे पर शहद सी धूप चढ़ा, पलकों पर सपने पाल, मुस्कुराहट को पहचान बनाकर ज़िंदगी को हैरान कर।

किसी की तारिफ़ की मोहताज नहीं तू अपने आप में बेमिसाल है कड़वे तीखे धारदार उलाहनों का जवाब दे ज़िंदगी के प्रवास का तू अहम किरदार है अपने वजूद को तराश ज़माने को मौका दे तुझे नोटिस करने का।

निष्ठा और आत्मविश्वास से अपने व्यक्तित्व को एक निखार दे तू बोझ नहीं बल है, परिवार की तू नींव है,

बारिश के जैसी बन कोई और तय नहीं करता की बारिश को छत पर गिरना है या ज़मीन पर वो बारिश तय करती है उसे कहाँ बरसना है, उसे तो बस बरसना है अपनी मर्ज़ी से फिर पानी को कोई सहज कर रखें या बह जाने दे वो सोचना बारिश का काम नहीं।

वैसे स्त्री को भी हक है अपना रास्ता अपनी मंज़िल खुद तय करने का

अपने अंदर के हुनर को पहचान कर हौसलों की मिट्टी से आकार दो तुम्हारे तन के कण-कण में रचनाएँ बसी है किसी एक को सहला कर देखो जी उठेगी।

किसीके वश में रहना नहीं सबको वश में करना सिख, याद रख तेरे बिना सबकुछ अधूरा है पर तू अपने आप में संपूर्ण है तू बिना पुरुष के जी सकती है, पुरुष तेरे बिना अकेला है, संसार तेरे बिना सूना है,

रेत सी झर मत पत्थर सी तनी रहे तू बेशकीमती नगीना है।।

©भावना जे. ठाकर

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