लेखक की कलम से

भटक रही है, अंधेरे में जिन्दगी ऐसे…

कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है

कि घृणा का यह मंजर क्यूँ बार बार आता है?

जिन्दगी! गर तेरी नरम छाँवों में गुजरने पाती

तो यूँ बुझाई न जाती दीए में बाती।

यह रंज-ओ-गम की स्याही जो दिल पे छाई है

कालिख पुती, तेरी कृति की परछाई है।

लुटती अस्मत, कुचलती आत्मा को झेलती

शतरूपा खोज रही अपना वजूद है।

अप्रतिम सृष्टि का देखा जो सपना तूने

वो तो हो न सका, वो तो हो न सका और अब यह आलम है,

कि आदम ही जालिम और जालिम ही आदम है।

भटक रही है, अंधेरे में जिन्दगी ऐसे

धधकती है सीने में ज्वाला जैसे

तुम यही हो, यही कहीं हो, बंधे खड़े हो, मनु मेरे!!

मैं जानती हूँ मेरे हमनफज,

मगर यूँ ही, कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है।

@अनुपमा दास, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

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