अश्क़ियां …
मेरी गज़ल
क्या जरूरी था तुम्हें बे-कसों को जर्ब दे जाना ।
जज्बातों की अहमियत ही नहीं, दिल मे यूं ही अश्क़ियां बना लेना ।।
मेरी मुश्किलें तो दर्ज है. मेरी हाथों की लकीरों में ।
पर ढूंढती हूं मैं, फरिश्ते उन लस्करे फकीरों में ।।
सज़र भी गिर रहे हैं, छत भी टपक रहे हैं।
जिंदगी भी शायद लीज पे, हयातें गिन रहे हैं ।।
फलक हुआ बेज़ार, बेकस ज़मी पर शायद ।
उकुबत खिज़ा पर देखो, बहारें हंस रहीं हैं ।।
शमशीर हुए रिश्ते, बिस्मिल हुए ज़ज्बात।
तखल्लुस में जी रहे हैं, मुंसिफ की आस में ।।
अबस हुई है ये जहां उकुबत के दहशत से ।
मुफीद पे चल रही है, देखो फर्जी हैं सियासतें ।।
रिसालतें पे छप रही है, मय्यसर की दास्तां ।
पर स़हरा हुआ है ये मुल्क, ख़ादिम हुए है बेज़ुबान ।।
तकरीह कर रहे हैं, इंतकाम की आड़ में ।
पर निबौरी बह रहे हैं, लोगों के नस -नस में ।।
मुतमईन नहीं है, इस मुल्क मे कोई शख्स भी ।
मेहर की तलब में हर रिश्ता हुआ है मय्यसर ।।
आफताब की चमक में आतीश निकल रहे है।
कहकशा हुआ धुंधली चश्म -ओ -चिराग में ।।
©तबस्सुम परवीन, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़