लेखक की कलम से

ललकार…

मर्यादित बन मैं जलती रही हूँ,

ज्वाला बन मैं तुझे जलाऊँगी।

अपार थी मेरे सहने की शक्ति,

पर अब सहन न कर पाऊँगी।

 

मेरे सीने में जो अगन जली है,

उस अगन को न बुझने दूँगी।

इस आग से एक मशाल बना,

सैकड़ों दीप प्रज्वलित कर दूँगी।

 

मुझको जो कमतर आँक रही,

उस सोच को अब तजना होगा।

बहुत पढ़ लिया रामायण को,

दुर्गा-स्तुति को भी भजना होगा।

 

रणचंडी बनकर मैं रक्त पाऊँगी,

न पुनः रक्तबीज पनपने दूँगी।

कई चण्ड-मुण्ड संहारे मैंने,

अब महिषासुर का भोज करूँगी।

 

वायु मेरी परम-प्रिय सखी है,

संग उसके दावानल दहकाऊँगी।

काल बन जो तू मुझपर झपटा,

महाकाली सा रौद्र रूप दिखाऊँगी।

©श्वेता गुप्ता

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