लेखक की कलम से

नाम बड़े और दर्शन भी बड़े …

यात्रा वृतांत

इमारतें किसी धर्म या जाति विशेष की नहीं होती और ना ही कला ….

यह सब तो हम इंसानों के विचार और स्वार्थ का किया धरा है जो हर जगह नफरत और अलगाव के बीज बिखेरता घूमता है। उसमें खाद पानी देकर पोषित करने का काम वह लोग और संस्थाएं करती हैं जिनका पेट ही उस रोटी से भरता है जो उस आग पर सेंकी गई हो जो एक दूसरे का घर फूंककर जलाई जाती है।

किसी भी हिंसा के कारणों की तह तक पहुंच कर देखिए कोई ना कोई स्वार्थ, कोई न कोई हित जरुर छिपा मिल जाएगा । दो बिल्लियों की लड़ाई में फायदा बंदर उठा ले जाता है , सोच कर देखिए आखिर बिल्लियों को अंत में मिलता क्या है …‘शत्रुता’

यथास्थिति मनुष्यों के बीच भी देखने को मिलती है ।

बहुत दिनों से इच्छा थी लखनऊ की शान #बडा_इमामबाड़ा देखने की…

ईरानी शैली में निर्मित बडा इमामबाड़ा को भुलभुलैया के नाम से भी जाना जाता है। भुलभुलैया मुख्य इमारत की छत तक जाने वाली सीढ़ियों और लम्बे गलियारों का ऐसा जाल है जो अजनबी व्यक्ति को रास्ते से भटका देता है, वह समझ ही नहीं पाता की छियाहत्तर सीढ़ियों में से कौन सी सीढियां ऊपर छत पर जाने का सही रास्ता हैं और कौन सी नीचे ले जाएंगी।

इमामबाड़ा में दो ऊंची मीनारों वाली मस्जिद भी है जिसमें गैर मुस्लिमों का प्रवेश निषेध है। मस्जिद का बाहरी भाग बारीक नक्काशी और बेहतरीन कारीगरी का सर्वश्रेष्ठ नमूना है।

इमामबाड़ा का विशेष आकर्षण शाही बावली या शाही हमाम भी है जो भूमिगत सुरंग के माध्यम से गोमती नदी से जुड़ा हुआ है ,वर्तमान में बावली को गोमती से  जोड़ने वाले  कुएं को मिट्टी पाटकर भर दिया है। इसका निर्माण सुरक्षा के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है।

गलियारे में बैठ कर सिपाही गोपनीय रूप मुख्य द्वार पर नजर रखते थे तथा किसी खतरे की आहट होते ही गलियारे के झरोखों से तीर चलाकर शत्रु को ढेर कर देते। शत्रु यह जान भी न पाता की आखिर उस पर आक्रमण हुआ कहां से है।

सवा दो सौ साल पहले जब ना तो आधुनिक तकनीकी मशीनों जैसी मशीनें रही होंगी, ना ही कंप्यूटराइज नक्शा ।

ऐसे समय में कारीगरों ने सुरक्षा, सुंदरता, संतुलन और कला के विविध आयामों को समेटते हुए एक नायाब ईमारत बना डाली जो खुद श्रमिकों, कारीगरों की मेहनत तथा नवाब आसफ़उद्दौला के कला प्रेमी होने तथा अपनी अवाम के हितैषी नवाब की कहानी कहती प्रतीत होती है।

नवाब ने 1784 ई. में अकाल के समय अपनी अवाम को रोजगार देने और धर्म पर शहीद हो गए इमाम हुसैन के बलिदान और गम की स्मृति में बनवाया था।

कहा जाता है की इस अद्भुत वास्तुकला से परिपूर्ण इमारत के वास्तुकार किफायतउल्ला का संबंध ताजमहल के वास्तुकारों से था।

बिना स्तंभों व बीम के खड़ा यह विशालकाय हॉल अद्भुत सन्तुलन और मजबूती को दर्शाता है।

वहां काम करने वाले एक भाई से बात करते समय उनकी आंखें भर आईं,“ कहने लगे मोहर्रम पर यहां लाखों की भीड़ जुटा करती थी लेकिन आज देखो मुश्किल से सौ लोग होंगे, सरकार और प्रशासन से शिकायत कुछ नहीं मगर कुछ इंतजामातों और जरूरी एहतियातों का ख्याल रखा जाता तो रौनक कुछ ओर होती”।

खैर सरकारी नियम कायदे तो जैसे चलते हैं उनसे तो हम सभी वाक़िफ है ही। जनता भी कुछ कम नहीं है पर्यटक इमारत की छत पर  बने झरोखों में बेधड़क लटक कर गलबहियां डाले सेल्फी और फोटू क्लिक करते मौत को दावत दे रहे थे। कुछ चॉक और पत्थर के नुकीले टुकड़ों से दीवारों और छत पर अपना नाम लिखने में मशगूल थे तो कुछ कूड़ा फैलाने में ।

इससे भी ज्यादा दुख यह जानकर हुआ की कुछ युवक युवतियां भूल–भुलैया तथा शाही बावली की अंधेरी और भ्रमित सीढ़ियों पर प्रेमालाप करते हुए पकड़े गए।

राष्ट्रीय धरोहर का ऐसा महत्व समझ रहे हैं लोग, इस तरह की घटिया और ओछी हरकतें करने जाते हैं वहां;; शर्मनाक बात है हम देशवासियों के लिए।

जगह जगह से झड़ी  दीवारों से झांकती लखौरी ईंटें , रंगत खो रहे पत्थर ने रख रखाव समिति से इतना सा आग्रह किए बगैर लौटने न दिया की इसका एक एक कण हमारे गौरवशाली इतिहास और गंगा जमुनी संस्कृति का प्रतीक है , सहेज लीजिए इसे ताकि सनद रहे आने वाली पीढ़ियों को कि भारत की नींव की ईंटें जिस मिट्टी से चिपकी हैं उस गारे को हिंदू,मुसलमान दोनों के पसीने से साना गया था ।

बदले में उन्होंने आश्वासन दिया और बताया की वह खुद इसके नवीनीकरण और मरम्मत के लिए प्रयासरत हैं।

लखनऊ सिटी रेलवे स्टेशन तथा केशरबाग बस अड्डे से आसानी से ऑटो या कैब द्वारा चंद मिनटों में बड़ा इमामबाड़ा पहुंचा जा सकता है । उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ दिल्ली समेत लगभग सभी बड़े शहरों से वायुमार्ग तथा रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है। बाय रोड भी आ सकते है।

कोविड19 गाइडलाइन के नियमों को ध्यान में रखते हुए इस समय इसे शाम पांच बजे बंद कर दिया जाता है।

बड़ा इमामबाड़ा देखने जाए तो उसके करीब ही स्थित छोटा इमामबाड़ा व रूमी दरवाजा देखना न भूले।

 

लौटते समय गोमती से आती शीतल हवा धीरे–धीरे कान में बशीर बद्र का शेर गुनगुना रही थी।

#सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें

आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत ।।

 

©चित्रा पवार, मेरठ, यूपी                  

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