प्रश्नचिन्ह …
तुम्हारी गहरी चुप्पी ने
जीवन में प्रश्नचिन्ह -सा लगा दिया
तुमने अपनों के खातिर
मुँह पे ताला क्यों लगा लिया।
मैने जीवन में अंतिम-क्षण तक
तेरे संग-संग, सही सही
हँसते-हँसते हर कर्तव्य में
तुमको हरक्षण संग दिया।
तुम्हारी गहरी चुप्पी ने
जीवन में प्रश्नचिन्ह -सा लगा दिया
तुमने अपनों के खातिर मुँह पे
ताला क्यों लगा लिया।
तुम्हारे अपने आवरणहीन न हो
इसलिये मौन हो तुम सब देखते रहे, काश कि, तुम भी मेरी तरह
सच को सच कहने का साहस करते तो आज झूठ न फैलता
तुम्हारी गहरी चुप्पी ने हाँ
प्रश्नचिन्ह सा लगा दिया
तुमने अपनों के खातिर
मुँह पे ताला क्यों लगा लिया।
तुम थे तब भी हर डगर पर
मैं अकेली ही थी कभी, कहीं भी
मेरे साक्ष्य तो नहीं बने थे तुम
सही-गलत सब मुझे तब भी हाँ
अकेले ही ढोने पर रहे थे,अब
तुम्हीं कहो वो तेरी कैसी परिणीता
तुम्हारी गहरी चुप्पी ने हाँ….
प्रश्नचिन्ह सा लगा दिया
तुमने अपनों के खातिर मुँह पे
ताला क्यों लगा लिया।
अब आज मैं ये तुम्हारे अपनों पर
प्रश्नचिन्ह लगाती हूँ ये उसका
अबतक का यक्ष – सा प्रश्न ?
जिसका प्रतिउत्तर मुझसे जगह-जगह पर माँगा जाता है ये कैसी,
कौन सी परिणीता??
जिससे बेवजह सिर्फ प्रश्न ही पुछा जाता है, तुम्हीं कहो ,क्योंकि
सिर्फ तुम्हारी गहरी चुप्पी ने
प्रश्नचिन्ह सा लगा दिया तुमने
अपनों के खातिर मुँह पे ताला
क्यों लगा लिया।
©सुप्रसन्ना झा, जोधपुर, राजस्थान