लेखक की कलम से
जिन्दगी की फिसलन …
नम हो जाती है आँखे
देखता हूँ अपने अतीत में,,,,
वो दर-ब-दर ठोकरे खाती जिन्दगी,,,
न जाने कितनी बार
चिकनी सतह वाली सड़कों पर फिसलती
जिन्दगी के उस मोड़ पर ,
घर्षण कम था,,,
फिसलना तो तय था,,,
पैरों के निशान ,,
चिकनी सतह वाली सड़कें कब का बिखर गई,,,
जिन्दगी में मोड़ आती गई ,,,,,
वो मोड़ अब नही आने वाले जिस मोड़ पर पहली बार ,,
हजारों ख्वाहिश लिए जिन्दगी ,,,
लम्बी लम्बी छलांग लगाने के फिराक में ,,,,
उसी सड़कों पर चलना अभी भी पड़ता है।
©अजय प्रताप तिवारी, इलाहाबाद