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मोदी की तरह हैं नेपाल के ओली, नेशनलिस्ट एजेंडा चाहते हैं ताकि हिमालयी देश की सियासत में बने रहें

नई दिल्ली। भारत और चीन के बीच जारी तनाव के बीच नेपाल फैक्टर भी सामने आया। माना जा रहा है कि नेपाल में सत्तारूढ़ प्रधानमंत्री ओली की सरकार चीन को ज्यादा तवज्जो दे रही है। 8 मई को भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 80 किलोमीटर लंबी लिपुलेख-धाराचूला सड़क का उद्धाटन किया तो नेपाल ने आपत्ति जताई।

इससे पहले उसे कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधूरा को भारत के नक्शे में दिखाए जाने पर ऐतराज था। भारतीय सीमा से लगी पोस्ट्स पर नेपाली सेना भी तैनात की गई। यह पहली बार हुआ। ताजा तनाव के मद्देनजर दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की बात सबसे जरूरी है। क्योंकि, नीति और निर्णय दोनों उन्हीं के हाथ में हैं।

एक या दो मौकों पर ऐसा हुआ जब नेपाल के मामले में कोई फैसला लेने से पहले भारत और चीन ने एक-दूसरे को भरोसे में लिया। कालापानी और लिपुलेख का मामला ऐसा ही है। नेपाल 29 अप्रैल 1954 को तिब्बत पर हुए भारत-चीन समझौते से अच्छी तरह से वाकिफ है। जहां पहली बार लिपुलेख को भारतीय तीर्थयात्रियों को इजाजत देने वाली 8 बॉर्डर में शामिल किया गया था।

8 मई को राजनाथ ने जिस सड़क का उद्घाटन किया, वह 2015 में मोदी की चीन यात्रा के दौरान लिपुलेख के जरिए ट्रेड रूट बढ़ाने के लिए भारत और चीन के बीच हुए समझौते का ही हिस्सा है। इस मामले की जानकारी जब नेपाल के उस वक्त पीएम रहे सुशील कोइराला को मिली थी तो उन्होंने भारत और चीन दोनों को डिप्लोमेटिक नोट भेजकर इसका विरोध किया था।

कालापानी मामले पर जब भारत और नेपाल का विवाद हुआ तो चीन ने दोनों देशों को दोस्ताना बातचीत के जरिए मामला सुलझाने की सलाह दी। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियान ने कहा- दोनों देशों को एकतरफा कार्रवाई से बचना चाहिए। इससे मामला ज्यादा उलझ सकता है। चीन के बयान से यह साफ नहीं होता कि वो किसकी कार्रवाई को एकतरफा कार्रवाई बता रहा है।

भ्रम इसलिए भी पैदा हुआ क्योंकि यह मामला तो पांच साल पहले ही मोदी और शी जिनपिंग की बातचीत उठ चुका था। तो क्या चीन के बयान के मायने ये हैं कि वो सिर्फ नेपाल को यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि वो अपनी तरफ से नया नक्शा जारी न करे।

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