थोड़ा सच …
कहने सुनने में अजीब लगेगा
मगर थोड़ा तो सच है।
कहने में झिझक है, मुझे दीवाना बताओगे।
अकेले में मेरा मज़ाक भी उड़ाओगे।
जानती हूं फिर भी कह रही हूं।
किसी और का नहीं
ख़ुद का ही अनुभव सुना रही हूं।
ईश्वर किसी को भी
होम आइसोलेशन में ना भेजे।
भेज ही दिया तो ले लो थोड़े से मज़े।
सोने के कमरे जो पेंटिंग्स लगी हैं
ध्यान से कभी देखा ही नहीं।
अब बार बार देखती हूँ,
समझने की कोशिश करती हूं।
न जाने क्या क्या अर्थ लगाती हूं।
अर्थ ज्यादा ग़लत पर थोड़े तो सच हैं।
ना घर का कोई काम,
ना किसी की कोई चिंता।
मुस्कुरा लेती हूं ये सोच कर
कि कर रहा है हर कोई मेरी ही चिंता।
अचानक इतनी महत्वपूर्ण हो गई हूं।
हर किसी की आँख का तारा हो गई हूं।
पूरा ना सही, थोड़ा तो सच है।
पतिदेव जिन्हें रसोई का रास्ता
भी ठीक से पता नही था,
आजकल वहीं पर नज़र आते है।
मैं क्या खाऊंगी पूछ कर
रसोई में सामान ढूंढते हैं।
वीडियो कॉल कर मूंग दाल
और उड़द दाल में अंतर समझते हैं।
बना बनाया खाना भी मिलता है,
पहली बार ये जाना।
स्वाद कुछ ख़ास नहीं होता
फिर भी तारीफ़ करती हूं
सारा ना सही पर
थोड़ा तो सच कहती हूँ।
घर गृहस्थी के चक्रव्यूह में
आत्ममंथन का अवसर ही नहीं मिला।
अब समय ही समय है चाहे जो करो।
टीवी देखो, कविता लिखो या किताबें पढो।
कमरे में बंद हैं तो क्या हुआ।
यादों के गुलशन में विचरण करो।
वो स्कूल, कॉलेज के दिन,
दोस्तों के साथ मस्ती के पल
जितना चाहो याद करो।
आप मानों या ना मानों,
मुस्कुराने के कारण तो अनेक हैं।
सारे का सारा ना सही
थोड़ा तो सच है।
©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात