लेखक की कलम से

चलो वक्त से पूछते हैं …

कौन समझता है यहां बातें अनकही भी,

सबसे रिश्ता तो मतलब का होता है यूंही।

खुद को संभालो चाहे जितना मगर फिर भी,

स्वाभिमान पे ठेस लगती है फिर भी कहीं।

किसी का क्या जाता है जो कहे कुछ भी कभी,

तमाशा भी बनाया जाता है कुछ न कहकर भी।

चलो वक़्त से पूछते हैं अब हिसाब पुराना भी,

हर वक़्त सिलसिला यही तो था पहले भी कहीं।

हम तो निकल जाएंगे दूर इस शहर से कहीं,

सोचते रहे सदा पर भुला न पाए चाह कर भी।

इक कशिश सी रोक लेती है जाने क्यों फिर वहीं,

कुछ तो है जो आज भी नहीं बदला फिर कहीं।

©कामनी गुप्ता, जम्मू                       

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