धर्म

श्राद्ध क्या है, और क्यों करें श्राद्ध

कवर्धा। पितृ पक्ष 14 सितम्बर से 28 सितम्बर तक है। इस संबंध में पं. देव दत्त शर्मा जी से श्राद्ध से जुडी आवश्यक जानकारी हम दे रहें हैं। श्राद्ध दो प्रकार के होते है :-   पहला पिण्डक्रिया और दूसरा ब्रम्हणभोज। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गई अन्न सामग्री पितरों को कैसे मिलती है..?

वायुपुराण के अनुसार पिण्डक्रिया के द्वारा श्राद्ध में दिये गये अन्न को नाम, गोत्र, ह्रदय की श्रद्धा,  संकल्पपूर्वक दिये हुये पदार्थ भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास भोजन रूप में उपलब्ध होते हैं और  मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मणभोजन – अर्थात श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण में पितर गुप्तरूप से प्राणवायु की भांति उनके साथ भोजन करते है मृत्यु के पश्चात पितर सूक्ष्म शरीरधारी होते है इसिलिये वह दिखाई नही देते ।

 धनाभाव में भी श्राद्ध

धनाभाव एवं समयाभाव में श्राद्ध तिथि पर पितर का स्मरण कर गाय को घांस खिलाने से भी पूर्ति होती है यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है । विष्णुपुराण के अनुसार  यह भी सम्भव न हो तो इसके अलावा भी, श्राद्ध कर्ता एकांत में जाकर पितरों का स्मरण कर दोनों हाथ जोड़कर पितरों से प्रार्थना करे।

“न मेस्ति वित्तं न धनम च नान्यच्छ्श्राद्धोपयोग्यम स्वपितृन्नतोस्मि। तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयोतौ कृतौ भुजौ वर्तमनि  मारुतस्य”

नित्य श्राद्ध :- प्रतिदिन किया जाने बाला श्राद्ध, जलप्रदान क्रिया से भी इसकी पूर्ति हो जाती है।

 नैमितकम श्राद्ध :- वार्षिक तिथि पर किया जाने वाला श्राद्ध।

 काम्यश्राद्ध :-  किसी कामना की पूर्ति हेतु किया जाने वाला श्राद्घ

वृद्धिश्राद्ध {नान्दीश्राद्ध} :-मांगलिक कार्यों, विवाहादि में किया जाने बाला श्राद्ध

पार्वण श्राद्ध :-पितृपक्ष, अमावस्या आदि पर्व पर किया जाने बाला श्राद्ध ।

श्राद्ध कर्म से मनुष्य को पितृदोष-ऋण से मुक्त के साथ जीवन मे सुखशांति तो प्राप्त होती ही है, अपितु परलोक भी सुधरता है ।

पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है, इसी दिन से महालय श्राद्ध  का प्रारंभ भी माना जाता है, श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए।

पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्ष भर तक प्रसन्न रहते हैं, धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।

आज पं. देव दत्त शर्मा जी श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं :-

श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए, यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं, दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।

श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है, पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है, पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है ।

श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।

ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रह कर भोजन करें।

श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं ।

“तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं, ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं, तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए, पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है, पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो {परिवार के} को श्राद्ध करना चाहिए, एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राध्दकर्म करें या सबसे छोटा ।

@पं. देवदत्त शर्मा

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