धर्म

यात्रा वृतांत: हमारी साहित्यिक और आध्यात्मिक यात्रा, भाग- 4

रायबरेली-डलमऊ-दौलतपुर-रायबरेली (अक्षय नामदेव) । 11 नवंबर को सुबह हम जल्दी उठ गए। जल्दी-जल्दी तैयार होकर हम चारों नीचे हाल में आ गए। वहां हाल में चाय नाश्ते का प्रबंध था। हल्का नाश्ता लेकर हम होटल के बाहर आ गए जहां आज की दौलतपुर की साहित्यिक यात्रा के लिए गाड़ियां खड़ी हुई थी। आगंतुकों की संख्या के अनुसार आयोजन समिति ने गाड़ियों का प्रबंध किया था तथा सभी को व्यवस्थित रूप से गाड़ियों में बैठाया जा रहा था। हमें जो गाड़ी प्रदान की गई उसकी क्रम संख्या 11 थी। सुबह 7:30 बजे होटल से साहित्यिक यात्रियों का काफिला कार्यक्रम के संयोजक गौरव अवस्थी के नेतृत्व में रायबरेली शहर के राही विकासखंड परिसर में पहुंचा तथा यहां आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रतिमा में फूल माला अर्पित कर श्रद्धा सुमन व्यक्त किए। आयोजन समिति के सदस्यों ने यह अवसर सभी को प्रदान किया। वहां हमें बताया गया कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की यह प्रतिमा 21 दिसंबर 1998 को यह प्रतिमा आचार्य द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति के प्रयासों से स्थापित हुई थी। यहां द्विवेदी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद हमारी साहित्यिक यात्रा का काफिला आगे के लिए निकल पड़ा। हमें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जन्मस्थली दौलतपुर में आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने के लिए जाना था परंतु आयोजन समिति ने दौलतपुर जाने के पहले हमें डलमऊ ले जाने का भी कार्यक्रम निश्चित किया हुआ था।

दरअसल डलमऊ गंगा किनारे का एक गांव है जो छायावाद के प्रख्यात कवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ससुराल है। डलमऊ होते हुए हमें रायबरेली से दौलतपुर तक लगभग 70 किलोमीटर की दूरी तय करना था। साहित्य प्रेमियों की गाड़ियों का काफिला आगे बढ़ता जा रहा था। हम बातचीत करते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे तभी लालगंज के बाद के गांवों में हमें सड़क के दोनों ओर स्कूल के छात्र-छात्राओं एवं नागरिकों की कतारबद्ध मानव श्रृंखला देखने को मिली जो हमारे काफिले के स्वागत में खड़ी थी। मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ क्या साहित्य प्रेमियों का इस तरह से भी स्वागत सम्मान होता है? छात्र-छात्राएं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अमर रहे के नारे लगाते हुए काफिले में फूलों की बारिश कर रहे थे। कुछ स्थानों पर गाड़ियों को रोक कर गाड़ी में बैठे सभी लोगों को फूल माला देकर उनका स्वागत किया गया। छात्र-छात्राओं के नारों से वातावरण गुंजायमान हो रहा था। ऐसे में किसका मन भावुक ना हो जाएगा? इस अंचल के प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्मृति संरक्षण अभियान के रजत जयंती वर्ष यह कार्यक्रम को यहां के लोग कुछ इस तरह से भी मनाएंगे मुझे इसकी कल्पना नहीं थी।साहित्य यात्रा  डलमऊ होते हुए 70 किलोमीटर चलकर दौलतपुर पहुंचना था इसके बावजूद भी रास्ते में पड़ने वाले गांव के लोगों का उत्साह कम होने का नाम ही नहीं लेता था।

साहित्य यात्रा का स्वागत करने वाले में पूरे पांडे, जनता इंटर कॉलेज,विवेकानंद इंटर कॉलेज, विसायकपुरभोजपुर कस्बे में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इंटर कॉलेज एवं एमडीआरएन पब्लिक स्कूल,आदर्श शिक्षा निकेतन कपसरी गांव तक चलता रहा जो दौलतपुर में आत्मिक स्वागत के साथ समाप्त हुआ। इस तरह के स्वागत से हम सभी साहित्य यात्रा में शामिल सदस्यों  का उत्साह कई गुना बढ़ चुका था।

अब हम डलमऊ पहुंच चुके थे। डलमऊ गंगा के किनारे का एक गांव है जिसे आप साहित्य प्रेमियों का तीर्थ कह सकते हैं। हां ठीक सुना आपने तीर्थ ही तो है डलमऊ। डलमऊ वह गांव है जहां छायावाद के प्रख्यात कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपने जीवन का काफी हिस्सा गुजारा। अपने सुख-दुख के दिन काटे। इसी गांव में गंगा घाट पर बैठकर उन्होंने साहित्य की सर्जना की। कविताएं लिखी जो आज हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान के संयोजक गौरव अवस्थी अध्यक्ष विनोद शुक्ला एवं अभियान  के अन्य सदस्यों के के अगुवाई में हम डलमऊ के गंगा घाट पहुंचे। गंगा घाट की सीढ़ियां उतरकर वहां हमने सामूहिक रूप से मां गंगा को प्रणाम किया। अपने ऊपर गंगा जल का सिंचन किया। हमने वहां गंगा घाट पर वह स्थान भी देखा जहां बैठकर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला अपनी कविताएं रचा करते थे। जहां निराला बैठकर कविताएं लिखते थे वहां से गंगा का बड़ा मनोहारी रूप दिखता है। गंगा का मनोहारी रूप,,, अरे याद आया सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की अर्धांगिनी का नाम भी मनोहरा देवी ही तो था। वही गंगा घाट के ऊपर मनोहरा देवी की प्रतिमा भी स्थापित है। गंगा घाट पर बैठे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के अंतर्मन से मनोहारी गंगा को देख कर ‌ बरबस ही यह कविता निकल गई होगी-

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!

पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,

वह कभी नहाती थी धँसकर,

आँखें रह जाती थीं फँसकर,

कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,

फिर भी अपने में रहती थी,

सबकी सुनती थी, सहती थी,

देती थी सबके दाँव, बंधु!

निराला ससुराल आने पर ज्यादातर समय निराला गंगा घाट की सीढ़ियों पर ही बैठकर बिताया करते थे तथा इन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर वे अपनी कविताओं की रचना करते थे प्रेम, विरह, सुख-दुख, विद्रोह और प्रगति सब निराला को यही गंगा घाट पर मिला। उनके ससुराल डलमऊ आने पर मुझे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कालजई रचना           “सरोज स्मृति ” का स्मरण आया जो मैंने कभी एम ए हिंदी अंतिम में पड़ी थी। बताते हैं निराला ने अपनी अपनी पुत्री सरोज की मृत्यु के बाद उसकी याद में सरोज स्मृति की रचना भी उन्होंने गंगा की इसी घाट पर बैठकर की थी जिसमें उन्होंने अपनी पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त किया है-

दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं आज जो नहीं कही।

धन्ये मैं जिम्मेदार पिता कुछ तेरे हित ना कर सका।। निराला की कविता में अपने जीवन का तमाम सच, दुख, अवसाद सब कुछ परिलक्षित होता है। इस लंबी कविता में उन्होंने एक पिता का अपनी पुत्री के प्रति प्रेम भाव तो है ही साथ में उन्होंने इस कविता के बहाने पत्र के संपादको तथा स्वजातियों को खूब लताड़ लगाते हुए अपने जीवन की विवशताओं  को व्यक्त किया है।

इसके अलावा इसी गंगा घाट पर बैठकर निराला ने अलका सहित अनेक उपन्यासों की रचना की। आज हम उसी गंगा घाट पर निराला को याद करने आए हैं। हमने सब बारी-बारी से घाट के ऊपर बने मनोहरा देवी की प्रतिमा पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। यह वही मनोहरा देवी है जो निराला को रचना करने की प्रेरणा देती थी। हमने गंगा घाट को प्रणाम किया और घाट से पैदल चलते हुए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ससुराल अर्थात उस घर पहुंचे जहां कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ससुराल प्रवास के दौरान रुका करते थे। डलमऊ में आज भी वह घर और कमरा है। वहां उनके पौत्र एवं अन्य रिश्तेदारों से भेंट की। साहित्य यात्रा के सभी सदस्यों को सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बारे में उनके पौत्र पुनीत मिश्रा जानकारी दे रहे थे। वह कमरा भी देखा जहां सूर्यकांत निराला रहते थे ‌। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के ससुराल हम डलमऊ में ही स्थित उस पार्क में पहुंचे जहां पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रतिमा स्थापित है।इस पार्क का उद्घाटन यहां की सांसद सोनिया गांधी ने किया था। यहां हमने सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी तथा कुछ फोटोग्राफ्स लिए ‌। यहां पार्क परिसर में ही डलमऊ के ग्रामीणों ने चाय की व्यवस्था की थी। डलमऊ आकर किसी साहित्यिक तीर्थ में आने जैसा एहसास रहा। यहां के कार्यक्रम के बाद अब हमारा काफिला दौलतपुर के लिए रवाना हो गया ‌।

कुछ किलोमीटर चलकर ही हम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की जन्म स्थली दौलतपुर पहुंच गए। यहां हमारे काफिले का वहां के ग्रामीणों ने जोरदार स्वागत किया। गांव के प्रारंभ में सभी गाड़ियां खड़ी कर दी गई तथा हम आचार्य की स्मृति से जुड़े नारे लगाते हुए पैदल कार्यक्रम स्थल में पहुंचे जहां महावीर चौरा के सामने भव्य पंडाल लगाया गया था। महावीर चोरा के बगल में ही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्नी के नाम पर एक मंदिर बना हुआ है जिसमें तीन मूर्तियां है एक ओर लक्ष्मी तथा एक और सरस्वती बीच में आचार्य द्विवेदी की पत्नी की मूर्ति स्थापित है। बताते हैं यहां स्थित महावीर चौरा का निर्माण उनकी पत्नी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी की स्मृतियों को चिरस्थाई करने के लिए बनाया था वहीं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पत्नी की स्मृतियों को चिरस्थाई करने के लिए मंदिर बनाया था जिसमें उनकी पत्नी की प्रतिमा के साथ लक्ष्मी एवं सरस्वती की प्रतिमा विराजमान है।कुछ लोग इस मंदिर को हिंदी माता का मंदिर भी कहते हैं। इसी महावीर चोरौ  एवं मंदिर के सामने सड़क के दूसरी ओर थोड़ी ऊंचाई में कार्यक्रम का पंडाल लगाया गया था जहां द्विवेदी मेला का मंच तैयार किया गया था। महावीर चौरा एवं मंदिर में माथा टेक कर हम पंडाल में जाकर बैठ गए और वहां के कार्यक्रम में शामिल हुए। ग्राम दौलतपुर में 11 नवंबर को आयोजित इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न राज्यों के विद्वान एवं हिंदी प्रेमी आए हुए थे जिनकी अगवानी  में यहां के ग्रामीणों एवं छात्र छात्राओं ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मंच पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की स्मृतियों को याद किया गया तथा अलग-अलग राज्यों से आए मूर्धन्य विद्वानों ने द्विवेदी की साहित्य साधना पर अपने विचार व्यक्त किए। मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे भी इस मंच पर बोलने का अवसर दिया गया। मंच के संचालक गौरव अवस्थी ने मुझे उद्बोधन के लिए मंच पर बुलाने के पहले विशेष रुप से पेंड्रा की धरती का उल्लेख करते हुए पंडित माधव राव सपरे का स्मरण किया और बताया कि पंडित माधव राव सप्रे एवं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एक दूसरे के समकालीन थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान के रजत जयंती वर्ष पर उनके जन्मस्थली दौलतपुर में आयोजित कार्यक्रम मैं बोलना मेरे लिए अत्यंत गौरव का क्षण था।यहां के कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण शिक्षक रवि प्रताप सिंह द्वारा प्रस्तुत कत्थक विशेष आकर्षण का केंद्र रहा। इसी तरह त रायबरेली के इप्टा टीम द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित नाटक के  मंचन ने लोगों का दिल जीत लिया। लेखक एवं निर्देशक संतोष डे द्वारा तैयार किए गए नाटक में रमेश श्रीवास्तव ने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के पात्र का जीवंत अभिनय करके हमें भावुक कर दिया ‌ इसके अलावा एकता के अन्य सदस्यों मैं इंडियन एक्सप्रेस के मालिक बाबू चिंतामणि घोष का अभिनय अमित यादव किसान जगदीश का संतोष चौधरी बालकिशन का अभिनय जनार्दन मिश्रा मूर्तिकार का अभिनय रमेश यादव ग्रामीण का अभिनय राहुल यादव लव कुश रामदेव सूर्यनारायण किया वही आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्नी का अभिनय डॉक्टर साधना शर्मा ने किया ‌ इस कार्यक्रम की मुख्य बात यह रही कि मंच पर वर्तमान में सरस्वती पत्रिका का संचालन एवं प्रकाशन करने सुप्रतीक घोष, अरिंदम घोष मंच पर विराजमान रहे जिससे कार्यक्रम में चार चांद लग गए  ‌। रायबरेली की टीम द्वारा महावीर प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित नाटक की सभी ने खूब प्रशंसा की। मंच पर विभिन्न राज्य से आए विद्यत जनों की उपस्थिति से कार्यक्रम की गरिमा बढ़ गई थी। यहां के कार्यक्रम के बाद हमें वापस रायबरेली जाना था तथा हमारी वापसी अब भोजपुर के रास्ते हुई। भोजपुर के रास्ते हमें रायबरेली जाने के लिए कुल 58 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ी।

भोजपुर में हमारे अभियान के सभी सदस्यों का भोजन का कार्यक्रम था। यहां भोजपुर में ग्रामीणों ने स्थानीय देसी अंदाज मैं जमीन पर बैठाकर पत्तल में खाना परोसा जिसका हम सभी ने खूब आत्मिक आनंद उठाया। यहां भोजन में भोजपुर में दाल चावल मेथी आलू की सब्जी के साथ दही बड़ा और रसावर परोसा गया । रसावर गन्ने के रस से बनाई हुई खीर है जिसका सभी ने खूब आनंद उठाया। यहां भोजन परोसने में मान मनुहार भी शामिल रहा।भोजन करने के बाद साहित्यिक यात्रा का हमारा काफिला रायबरेली के लिए वापस रवाना हो गया। डलमऊ और दौलतपुर की आज की हमारी यात्रा हमारे जीवन की अविस्मरणीय यात्रा रही जो बरसों बरस याद रहेगा।

 

                  क्रमशः

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