धर्म

यात्रा वृतांत: हमारी साहित्यिक और आध्यात्मिक यात्रा, भाग- 3

बिठूर (अक्षय नामदेव)। कानपुर से बिठूर की दूरी लगभग 27 किलोमीटर है तथा गंगा बैराज से बिठूर की दूरी सिर्फ 20 किलोमीटर रह  गई थी। हम बिठूर जल्दी ही पहुंच गए।

कानपुर से लगा एवं गंगा नदी के तट पर बसा बिठूर एक नगर पंचायत है जिसका जितना अधिक ऐतिहासिक महत्व है उतना ही अधिक धार्मिक महत्व भी है ‌। बिठूर को 1857 की क्रांति के बिगुल फूंकने का सौभाग्य प्राप्त है वही महर्षि वाल्मीकि के रामायण की रचना बिठूर में ही हुई थी। यहां गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट है जिनका ऐतिहासिक और पौराणिक महत्त्व है। हमें समय की सीमा का ध्यान रखना था साथ भ्रमण का भी आनंद लेना था। हम मुख्य मार्ग होते हुए सीधे ब्रह्मावर्त घाट पहुंचे।

एक जगह रुक कर पूछने पर एक सज्जन ने बताया कि हम जिस मार्ग पर हम चल रहे हैं वह सीधे ब्रह्मावर्त घाट पर ही समाप्त होती है। हम सीधे ब्रह्मावर्त घाट चले गए। गाड़ी पार्किंग में खड़ी करा कर हम उतरकर पैदल चलते हुए ब्रह्मावर्त घाट पहुंचे। ब्रह्मावर्त घाट गंगा तट का अत्यंत प्राचीन और पौराणिक महत्व का घाट है। यह  घाट प्राचीन निर्माण है जिसकी सुंदरता और प्राचीनता देखते ही बनती है। घाट पर श्रद्धालुओं और पर्यटकों की काफी भीड़ थी। कुछ लोग घाट पर पूजा कर रहे थे तो कुछ लोग नौका विहार का आनंद ले रहे थे।

हम सीधे सीढ़ियों से नीचे घाट में उतर गए। जैसा कि तीर्थ स्थलों में होता है वहां गंगा तट पर फूल और दीप बेचने के लिए अनेक महिलाएं स्वयं श्रद्धालुओं से आग्रह कर रही थी। एक वृद्ध महिला से निरुपमा ने दीपदान के लिए दीप खरीदा तथा घाट पर पहुंचकर दीपदान किंग। ब्रह्मावर्त घाट की सीढ़ियों पर खड़े होकर हम काफी देर तक मां गंगा को निहारते रहे कथा उनका दर्शन करते रहे। यहां मां गंगा का पाट काफी चौड़ा है। चौड़ाई में बहती गंगा नदी की गंभीरता को देखकर इसकी गहराई का सहज अंदाजा लगता है।

मां गंगा नदियों में सबसे श्रेष्ठ मानी गई है। हिमालय पर्वत के गोमुख से निकली गंगा भारत वर्ष के विभिन्न हिस्सों को सींचती हरा भरा करती हुई गंगासागर में समा जाती है। गौमुख से निकलने के बाद गंगा नदी में न जाने कितनी ही छोटी बड़ी  नदियां समाहित होती है। गंगा में सब को समाहित करने की क्षमता है इसके बावजूद भी उसमें गंभीरता बनी रहती है।नदी की तरह जीवन में भी गंभीरता ज्ञान से आती है। धीर, गंभीर,मां गंगा निहारते निहारते मुझे सहसा गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई का स्मरण आया जिसमें उन्होंने लिखा है-

छुद्र नदी भरि चली तोराई, जस थोरेहुं धन खल इतराई,  जिस प्रकार वर्षा आते ही छोटी नदियां, अपने आपकी तुलना सागर से करने लगतीं है, उसी प्रकार छोटे लोग थोडा धन मिल जाने पर, अपने आप को कुबेर समझ लेतें है। यूं ही लोग मां गंगा को अपने घर में नहीं रखते। जीवन के अंतिम समय में मां गंगा के जल को पिलाने की परंपरा यूं ही नहीं बनाई गई है।  ब्रह्मावर्त घाट में  श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों के लिए नौका विहार की सुविधा है। बड़ी संख्या मैं यहां तट पर नावे उपलब्ध है। ब्रह्मावर्त घाट के बारे में मान्यता है कि यहां ब्रह्मा ने तप और यज्ञ किया था तथा सृष्टि की रचना यही बैठकर की थी उन्होंने यहां शिवलिंग की स्थापनाभी की थी।

ब्रह्मावर्त घाट पर पूजा अर्चना करने के बाद हम घाट की सीढ़ियां चढ़कर ऊंचाई वाले स्थान पर आ गए तथा ऊंचाई पर बने चबूतरे पर बैठकर मां गंगा का मोहक नजारा देखने लगे। ब्रह्मावर्त घाट पर बहुत सारे प्राचीन छोटे-छोटे पक्के कमरे बने हुए हैं जिन्हें किसी किसी श्रद्धालु ने बनवाया होगा। इनमें से अधिकांश पर ताला जड़ा हुआ दिखा। इन छोटे-छोटे कमरों को देखकर सहज अंदाजा लगता है कि पहले नदियों के तट पर वास करने की परंपरा रही है।

नदियों के तट पर रहना तथा भजन पूजन करना कई गुना ज्यादा फलदाई होता है। गंगा तट की बात ही निराली है। हम वहां गंगा तट पर काफी देर बैठे रहे कुछ फोटोग्राफी की तथा वहां से पैदल चलते हुए वापस गाड़ी के पास आ गए।

ब्रह्मावर्त घाट से वापस आकर हम नाना साहब पेशवा पार्क पहुंचे जहां वर्ष 1857 की क्रांति की स्मृतियां सहेजी गई है। यहां प्रवेश के लिए प्रति व्यक्ति ₹120 की टिकट कटानी पड़ती है। चार टिकट लेकर हम पेशवा पार्क में प्रवेश किए।

नाना साहब पेशवा पार्क में प्रवेश करने के साथ ही यहां सन 18 57 की क्रांति की स्मृतियों का आभास मिलता है। पार्क में प्रवेश करते ही मुझे सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी गई की झांसी की रानी की पंक्तियां पंक्तियां बरबस ही याद आने लगी जो हमने बचपन में कक्षा पांचवी में पढ़ी थी।

कानपुर के नाना की मुंहबोली बहन छबीली थी, लक्ष्मीबाई नाम पिता की वह संतान अकेली थी।

नाना के संग खेली थी वह, नाना के संग पढ़ती थी। बरछी ढाल कृपाण कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथाएं उसको याद जवानी थी। बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।

प्रमाणिक इतिहास के अनुसार यह वही स्थान है जहां रानी लक्ष्मीबाई का बचपन बीता और यही उन्हें युद्ध कौशल का प्रशिक्षण दिया गया था। यहां नाना साहब पेशवा पार्क परिसर के बीच में तात्या टोपे की विशाल प्रतिमा स्थापित की गई है। तात्या टोपे के  चरणों पर शीश झुकाने के पश्चात हमने पार्क के अन्य हिस्सों का भ्रमण किया जहां से क्रांति की खुशबू आ रही थी। इसके बाद हम परिसर में ही स्थित म्यूजियम में प्रवेश किए। म्यूजियम में सन 1857 की क्रांति के अलावा उस दौर की अन्य सामग्रियां रखी गई है जिसे देखते ही आप गौरव महसूस करेंगे। नाना साहब पेशवा पार्क का भ्रमण करने के बाद हम पार्क से बाहर आए और वाल्मीकि आश्रम चले गए।

बिठूर मेंस्थित वाल्मीकि आश्रम का अपना अलग पौराणिक महत्व है। यहां ऋषि वाल्मीकि ने तप किया था तथा रामायण की रचना की थी।वाल्मीकि आश्रम का इसलिए भी महत्व है कि यही बिठूर में भगवान श्री राम ने माता सीता का परित्याग किया था तथा इसी वाल्मीकि आश्रम में माता सीता ने लव और कुश को जन्म दिया था। बिठूर का पौराणिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि लव और कुश ने वाल्मीकि आश्रम में रहते हुए भगवान राम के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को रोका था तथा युद्ध की चुनौती को स्वीकार किया था।

बिठूर का इसलिए भी विशेष पौराणिक महत्व है क्योंकि यह वही जगह है जहां माता सीता ने अपनी सत्य और पवित्रता की परीक्षा देते हुए धरती माता को फट जाने का आग्रह करते हुए पाताल गामी हुई थी। हमने क्रम से इन स्थानों का दर्शन किया और यहां की माटी को प्रणाम किया। गंगा के तट पर स्थित वाल्मीकि आश्रम में ज्यादातर आधुनिक निर्माण है तथा प्राचीन स्मृतियों को संजोकर रखा गया है। दोपहर होने के कारण यहां स्थित मंदिरों के कपाट बंद थे सो हमने सभी मंदिरों की दहलीज को प्रणाम किया ‌वाल्मीकि की यज्ञशाला को प्रणाम किया ‌ तथा यहां से निकल गए।

पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व के इन स्थानों के अलावा बिठूर में ध्रुव टीला भी स्थित है । भक्तराज ध्रुव को हम आप सभी जानते हैं। ऐसा कौन होगा जो बचपन में भक्तराज ध्रुव की कहानी ना सुना होगा? ध्रुव टीला के अलावा बिठूर में गंगा तट पर अनेक पौराणिक स्थान एवं घाट बने हुए हैं जहां पर हमारा जाना संभव नहीं हो सका। हम यहां के कुछ स्थानों का दर्शन करके हम रायबरेलीके लिए निकल गए। समय लगभग 3:30 बज चुके थे और अब हमें जोरों की भूख लगी थी। मैंने ड्राइवर को कहा कि रास्ते में कोई अच्छी खाने की जगह में रोकना जहां हम खाना खा सके। बिठूर से निकलने के लगभग 4:30 एक होटल पर रुक कर खाना खाया तथा उन्नाव होते हुए रायबरेली के लिए निकल पड़े।

रायबरेली पहुंचते-पहुंचते शाम के 7:00 बज चुके थे। हमें पता था कि हमें कहां रुकना है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान रजत जयंती वर्ष कार्यक्रम के आयोजक गौरव अवस्थी ने हमें उस होटल का पता पहले से ही दे दिया था जहां हमें रुकना है। रायबरेली शहर में प्रवेश करते ही हमें एहसास होने लगा था कि यहां कोई कार्यक्रम आयोजित है।

दरअसल रायबरेली के सभी मुख्य मार्गों में स्थानीय जनों द्वारा भव्य प्रवेश द्वार तथा पोस्टर होल्डिंग्स वगैरा लगवाए गए थे जो कार्यक्रम के आयोजन की सूचना दे रहे थे। अब हम होटल प्लीजेंट व्यू पहुंच चुके थे। हमें पूर्व में ही सूचना दे दी गई थी कि इसी होटल में हमारे रुकने की व्यवस्था की गई है। होटल  पहुंचने के कुछ देर बाद कार्यक्रम के संयोजक गौरव अवस्थी स्वयं हमसे मिलने आए और हमारा अत्यंत आत्मिक स्वागत किया। अवस्थी के मिलने से ही हमें यह एहसास हो गया कि वे हमारे वहां पहुंचने पर कितने अधिक प्रसन्न हुए हैं।

कुछ देर होटल में बैठकर बातचीत के बाद उन्होंने हमें  11 नवंबर एवं 12 नवंबर के कार्यक्रम के बारे में जानकारी दी और हमें बताया कि कल सुबह 7:00 बजे आप लोग तैयार हो जाइएगा। 7:30 बजे नीचे हाल में चाय नाश्ता के बाद हम यहां से महावीर प्रसाद द्विवेदी के जन्म स्थान दौलतपुर जाएंगे। दिन भर का कार्यक्रम वही है। उनसे बातचीत करते-करते रात्रि के 9:00 बज गए ।उन्होंने अपने साथ ही हमें नीचे हाल में ले जाकर हमारे साथ ही भोजन किया।

इस बीच कार्यक्रम में शामिल होने के लिए अन्य राज्यों से विद्वानजनों आना शुरू हो चुका था। गौरव अवस्थी और आयोजन समिति के सभी सदस्य आगंतुकों के अगवानी में लगे हुए थे। कौन कहां किस कमरे में रुकेंगे उसकी व्यवस्थित सूची आयोजन समिति के सदस्यों के पास थी। खाना खाकर हम अपने कमरे में वापस सोने चले गए। सुबह जल्दी जो उठना था।

 

           क्रमशः

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