धर्म

यात्रा वृतांत : हमारी साहित्यिक एवं आध्यात्मिक यात्रा भाग- 2

अक्षय नामदेव । 10 नवंबर को कानपुर के होटल में मेरी नींद जल्दी खुल गई और मैं बिस्तर पर लेटे लेटे मां को याद कर रहा था। मां की याद आती भी क्यों ना? आज मां की दूसरी पुण्यतिथि जो थी। रात को सोते समय भी मुझे उनका स्मरण हो रहा था। 2 वर्ष पूर्व 9 नवंबर की रात्रि लगभग 10:00 को मां  इस दुनिया  को छोड़कर अनंत में विलीन हो गई थी। वह रात रात हमारे परिवार के लिए बड़ी कठिन रात थी। दूसरे दिन 10 नवंबर को मां का अंतिम संस्कार किया गया था। मैं मां की यादों में खोया हुआ था। उन्हें याद करते हुए कब उजाला हो गया मुझे पता ही नहीं चला।

सुबह की चाय पीने के बाद मैं आगे की यात्रा के बारे में सोच ही रहा था कि दैनिक हिंदुस्तान के संपादक आशीष त्रिपाठी जी का फोन आया। फोन पर उन्होंने मुझे सूचना दी कि उन्होंने टूर ट्रैवल वाले का नंबर भेजा है। उससे आप बात कर अपना कार्यक्रम बता दीजिए । मैंने नंबर मिलाया और टूर ट्रैवल वाले से बात करके एक इनोवा गाड़ी मंगा ली ताकि  हम स्विधा पूर्ण ढंग से भ्रमण करते हुए रायबरेली जा सके।हम सभी समय पर तैयार हो गए। लगभग 11:00 बजे इनोवा गाड़ी के ड्राइवर ने मुझे फोन किया  कि वह गाड़ी लेकर होटल के सामने आ चुका है। हम तैयार हो ही चुके थे इसीलिए हम बिना देर किए  होटल छोड़कर अपना सामान गाड़ी में रखवा दिए। इनोवा के ड्राइवर से प्रारंभिक परिचय लेकर हमने उससे कहा कि हमें कानपुर के गंगा घाट परमट ले चलो। परमट गंगा के किनारे का स्थान है जहां घाट एवं मंदिर बने हुए हैं।

लगभग 20 मिनट बाद हम कानपुर के परमट गंगा घाट पर थे। यहां गंगा का विशाल चौड़ा पाट है। गंगा नदी में बाढ़ के कारण वहां पर घाट पर रेत जमी हुई है जिसे  पंप से साफ किया जा रहा था। गंगा घाट पर बड़ी संख्या में नावें बंधी हुई थी। कुछ नावे नदी के भीतर चल रही थी जिसे नाविक पतवार से चला रहे थे । शायद यहां मोटर इंजन से नाव चलाने की अनुमति नहीं है। इन नावों पर यात्री बैठे हुए थे जो मां गंगा दर्शन तथा नौका विहार करने के इरादे से यहां पहुंचे हुए थे। हमारे घाट तक पहुंचते ही एक नाविक ने हमें नौका विहार करने का आमंत्रण दिया।

नाविक के आमंत्रण को स्वीकार कर हम चारों नाव में सवार हो गए। नाविक पतवार के सहारे नाव खेने लगा। नाव धीरे-धीरे किनारा छोड़ते हुए बहाव के विपरीत दिशा में बढ़ी चली जा रही थी। कानपुर में गंगा  जितनी चौड़ी है गहरी भी उतनी अधिक है। यहां गंगा का प्रवाह भी काफी तेज है परंतु गंगा को निहारते हुए एक बात बहुत खेदित करती रही। गंगा यहां बहुत प्रदूषित दिखाई देती है । इसका अंदाजा उसके पानी के रंग को देखकर ही पता चलता है। जब हम नौका विहार कर रहे थे तभी हमें शहर की ओर से अनेक गंदे पानी के बड़े पाइपलाइन गंगा में मिलते हुए दिखाई दे रहे थे। नदी के किनारे कचरे के ढेर भी दिखाई दे रहे थे।हमारी नाव धीरे-धीरे बीच मझधार में जा रही थी नाव क दूसरे कोने में बैठी बेटी मैंकला फोटोग्राफी किए जा रही थी। बीच-बीच में वह आवाज लगाते जा रही थी,, वह है डॉल्फिन मछली।

दरअसल कानपुर के गंगा की गहराई में अत्यधिक मात्रा में डॉल्फिन मछलियां है।  मैंकला बताने लगी की डॉल्फिन मछलियां पानी की गंदगी को साफ करने का काम करती है तिवारी जी और निरुपमा भी अपनी अपनी जानकारियां एक दूसरे को बांट रहे थे।उधर अकेला नाविक पतवार खोए जा रहा था। धारा के विपरीत दिशा में नाव चलाने के कारण नाविक के चेहरे में थकान झलक नहीं थी। जीवन भी कुछ ऐसा होता है जब हम धारा के विपरीत चलते हैं तो हमें काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है कठिनाइयां आने पर  थकान भी महसूस होती है पर कहते हैं ना हर चढ़ाव के बाद उतार जरूर आता है  दुख के बाद सुख जरूर आता है। धारा के विपरीत लंबी दूरी चलने के बाद नाव की दिशा बदलने लगी और धारा के साथ अपनी गति में चलने लगी थी।

नाविक को भी कुछ आराम मिला वह सिर्फ अब नाव को दिशा दे रहा था। इधर मां गंगा के हिलोरों के बीच मुझे मां का स्मरण एक बार फिर हो आया। गंगा मां की गोद में मां का स्मरण,, दोनों ही जीवनदायिनी है। मेरी नजर मां गंगा के दूर फैले पाट और उसमें बहते विशाल जल राशि पर थी ।मां की स्मृतियों को याद करते हुए मैं कुछ भावुक हुए जा रहा था परंतु उनकी स्मृतियों को लिख पाना मेरे बस की बात नहीं।

जब मैं अपने रायबरेली उत्तर प्रदेश के इस साहित्यिक प्रवास के बारे में घर में पिताजी को बताया था तो उन्होंने मुझे जानकारी दी थी कि इस बार तुम्हारी मां की पुण्यतिथि 10 नवंबर को अमरकंटक में नर्मदा परिक्रमा वासियों को कंबल वितरण करने जाना है। मेरे प्रवास के बारे में उन्हें जानकारी देने पर उन्होंने स्वयं मुझे यहां आने की सहर्ष स्वीकृति दी थी। यह संयोग भी अच्छा रहा कि मैं मां की पुण्यतिथि में गंगा मां के किनारे और मेरा परिवार वहां अमरकंटक में मां नर्मदा के किनारे। मां को  नदियों में स्नान करना ,तीर्थ स्थलों में जाना बहुत अच्छा लगता था। उन्होंने ज्यादातर तीर्थ यात्राएं समय रहते पिताजी के साथ कर ली थी। सच पूछो तो मां ने विरासत में हमें यही सब कुछ सौंपा है। गंगा विहार के दौरान मां की स्मृतियों के बीच अचानक नाविक ने बोलना प्रारंभ किया।

भैया,, वह जो घाट के किनारे भोलेनाथ जी का मंदिर है ना वह बहुत सिद्ध मंदिर है आप वहां जाकर दर्शन पूजन अवश्य करिए। यह कानपुर के गंगा घाट परमट का प्रसिद्ध आनंदेश्वर शिव मंदिर है। इस मंदिर का संचालन जुना अखाड़ा द्वारा किया जा रहा है। नाविक बताने लगा कि इस मंदिर का इतिहास महाभारत काल के पहले का है। करीब तीन एकड़ में बने  इस मंदिर निर्माण के पूर्व पुराने जमाने यहां पर एक विशाल टीला हुआ करता था। जिसके आस-पास उस समय के राजा की कई गाएं चरने के लिए आती थी। उन्ही गायों में से एक गाय थी आनन्दी गाय। आनंदी कामधेनु थी जो उस टीले पर जाकर बैठती थी और जब वहां से चलने लगती थी तब वह अपना सारा दूध उस टीले पर ही बहा देती थी।

जब राजा को इस बात का पता चला तो उसके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई। एक दिन राजा ने आनंदी गाय के दूध बहा देने के रहस्य का पता लगाने के लिए टीले की खुदाई करवाई जहां आनंदी अपना दूध गिरा देती थी। नाविक ने बताया कि टीले की खुदाई के बाद वहां एक शिवलिंग निकला। आश्चर्यचकित राजा ने शिवलिंग को साफ करा कर उसकी विधि विधान से स्थापना कराई तथा उस कामधेनु गाय आनंदी की याद में शिवलिंग का नाम आनंदेश्वर शिवलिंग रखा जो आज पूरे क्षेत्र में आनंदेश्वर शिवलिंग मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।

हमने नाव से उतरकर नाविक को उतराई दिया तथा हम सीधे घाट की सीढ़ियों को चढ़ते हुए आनंदेश्वर मंदिर पहुंच गए। मंदिर में रोजाना की तरह आज भी भीड़भाड़ थी। वहां आनंदेश्वर मंदिर परिसर में खड़े होने पर मां गंगा का नजारा और भी सुंदर दिखाई दे रहा था। भगवान आनंदेश्वर शिव का दर्शन पूजन पश्चात हम परमट से बाहर अपनी गाड़ी के पास आ गए तथा यहां से हमारी यात्रा एक बार फिर प्रारंभ हो गई। अब हम कानपुर शहर को पार करते हुए गंगा बैराज पहुंचे थे। जिस क्षेत्र में गंगा बैराज है वह क्षेत्र कानपुर शहर से 7 किलोमीटर दूर बाहर है तथा अब उस इलाके में ने नई कालोनियां तथा नव निर्माण चल रहा है जिसके कारण आभास होता है कि आने वाले समय में नया कानपुर व्यवस्थित और सुंदर होगा। हमारी गाड़ी गंगा बैराज के ऊपर जाकर खड़ी हो गई। हम गाड़ी से उतरकर बैराज के ऊपर टहलते हुए वहां का नजारा देखने लगे।

बैराज से तेज पानी की आवाज आ रही थी।मानव सुरक्षा की दृष्टिकोण से बैराज को काफी ऊंचाई तक सघन जालियों से ढंका गया है। हम लोगों ने वहां कुछ फोटोग्राफ लिए परंतु फोटोग्राफ के इनसेट में नदी नहीं होगी या तो जाली होगी या तो सड़क। अचानक जाली से बैराज में जाते हुए मैंकला बेटी ने आवाज दी पापा वह देखिए पानी में जानवर मरा पड़ा हुआ है। ध्यान से देखने पर पता चला वाकई गाय और सूअर मरे हुए बैराज में अटके तैर रहे हैं वहां और भी गंदगी बैराज में आकर अटकी पड़ी हुई है। इन जानवरों को मरने के बाद इनके स्वामी ने बहा दिया होगा या ये पानी के तेज बहाव में खुद बह गए होंगे कह नहीं सकते परंतु यह दृश्य देखकर मुझे कोरोनावायरस संक्रमण काल के दौरान की घटना याद आ गई जब गंगा में बड़ी मात्रा में लाशें बहती देखी गई थी तथा इस समाचार को बड़े-बड़े टीवी चैनल्स एवं अखबारो मे प्रमुखता से दिखाया एवं लिखा गया था ।

सचमुच मानव जाति ने हमारी नदियों का बड़ा बेड़ा गर्क किया है। शायद यही कारण रहा कि स्वर्ग में रहने वाली यह नदियां पृथ्वी में आने से काफी डर रही थी परंतु यह जानने के बाद भी कि पृथ्वी में उन्हें प्रदूषित कर दिया जाएगा उन्हें मानव जाति के कल्याण के लिए उन्हें पृथ्वी पर अवतरित होना पड़ा। गंगा सहित भारत की तमाम नदियों के साफ सफाई एवं उद्धार के लिए तमाम तरह की सरकारी योजनाओं एवं जागरूकता अभियान के बावजूद जीवनदायिनी इन नदियों के प्रति मानव की संवेदना कब जागेगी कह पाना मुश्किल है?

गंगा बैराज देखने के बाद हमने बैराज के पास ही चौपाटी नूमा जगह में जलपान किया, चाय भी पी। चाय वाले ने हमें कुल्लड़ पर चाय भी जो काफी अच्छी सोंधी सोंधी लगी। कानपुर रेलवे स्टेशन उतरने के बाद से कुछ  जगहों को छोड़कर हमें कुल्लड़ पर ही चाय पीने को मिली। चाय पीने के बाद हमने अपने ड्राइवर राज को कहा कि अब हमें बिठूर ले चलो बिठूर के भ्रमण के बाद हम रायबरेली के लिए निकलेंगे। इस बीच मेरे पास भैया गौरव अवस्थी जी का भी फोन आया। उन्होंने हमारी सुध लेते हुए कहा कि आप लोग कहां हैं और कितने बजे तक रायबरेली पहुंचेंगे तब मैंने उन्हें बताया कि हम गंगा बैराज देखकर बिठूर जा रहे हैं तथा शाम तक रायबरेली पहुंच जाएंगे। अवस्थी जी ने हमें बिठूर के कुछ स्थानों की जानकारी देते हुए वहां जाने को कहा। अब हमारी गाड़ी बिठूर की ओर चल पड़ी थी।

क्रमशः

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