लेखक की कलम से

युवा पीढ़ी और संस्कार …

 (भाग १ )

आंखों में उजले भविष्य के सपने, उनको पूरा करने के लिए ऊंची उड़ान भरता हुआ जोश,कुछ करके दिखाने की ऊर्जस्वी लालसा रखने वाला युवा हर युग में युवा शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है । आज का भारत भी युवा शक्ति का भारत  है क्योंकि इस समय भारत  में युवाओं की संख्या अन्य आयु वर्ग के  लोगो की अपेक्षा अधिक है ।

भारतीय संस्कृति सम्पूर्ण विश्व को आकर्षित करती रही है, लेकिन हम भारतीय ही अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं । त्याग, संयम, सम्मान, अहिंसा,सत्य और आध्यात्म हमारी संस्कृति के मूल सिद्धान्त रहे हैं किन्तु आज का अधिकतर युवा पाश्चात्य संस्कृति से इतना प्रभावित हो रहा है कि अपने बहुमूल्य जीवन मूल्यों से दूर होता जा रहा है ।एकल परिवारवाद,भौतिकतावाद ,जरूरतों का बढ़ना,अर्थोपार्जन की होड़ आदि तनाव पैदा करने के कारक हैं जिसका स्वास्थ्य पर  बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है  । इसीलिए आज कल कम आयु में ह्रदयाघात ,मधुमेह आदि कितनी बीमारियां जानलेवा साबित हो रहीं हैं , ये हम आए दिन समाचार पत्र आदि में देखते सुनते रहते हैं जो कि बहुत निराशा जनक है ।

सभ्यता के समानांतर विज्ञान का भी उत्तरोत्तर विकास होता रहा है जिसने हमारे दैनिक जीवन को सुविधाजनक तो कर दिया है किंतु कुछ विपरीत परिणाम भी दिए हैं जिसके कारण हमें हानि भी हुई है । इस मशीनी और डिज़िटल युग ने युवाओं की मानसिकता में बहुत परिवर्तन कर दिया है और नैसर्गिक मानवीय गुणों का ह्रास होता दिख रहा है ।

आज तो युवा शक्ति का सत्य ये है कि वह दिन पर दिन नकारात्मक दिशा की ओर बढ़ती जा रही है ।दिशा हीनता, जल्दबाजी,समय का अभाव और एकाकीपन में संतुष्ट रहना ,ऐसा लगता है कि जीवन के मूल्यों के परिवर्तन का युग चल रहा है । सही मार्गदर्शन के अभाव में   दिशाहीन और दिग्भ्रमित हो रहा है वो समझ नहीं पा रहा है कि क्या करना है और किस राह चलना है ।पाश्चात्य और पौर्वात्य सभ्यता में इतना घालमेल हो गया है कि युवा इन के बीच भटक कर रह गया है ,अपनी जड़ों से भी छूट रहा है पाश्चात्य सभ्यता को भी पूर्णरूपेण अंगीकार नहीं कर पा रहा है । कभी कभी अवसाद से घिरा युवा आत्मकेंद्रित हो जाता है या फिर  नशा, हिंसा,कामुकता उसके चरित्र को पतन की ओर धकेल देते हैं ।ये बहुत ही चिंतनीय विषय है ।

इस समस्या गहनता से चिंतन करे  तो इसमें पहला अपराध माता पिता या उस अभिभावक का है जिसने बच्चे की परवरिश की है । माता पिता की व्यवसायिक व्यस्तता  , आपसी रिश्तों में संवादहीनता , व्हाट्सएप और फेसबुक और अपनी अन्य घरेलू समस्याओं में उलझे रहना  इन सभी बातों का खमियाजा बच्चे को भुगतना पड़ता है ।माता पिता के दाम्पत्य जीवन की कटुता भी बच्चों के स्वस्थ व्यक्तित्व के निर्माण की प्रक्रिया में बाधा डालती है और संतुलन बिगाड़ती है । ऐसे में  बच्चे या तो प्यार से महरूम रह जाते हैं या फिर प्यार की अति की वजह से माता पिता उनकी जायज़ या नाजायज़ सभी मांगे पूरी करते हैं और उनकी किसी भी गतिविधि में दखल देना आवश्यक नहीं समझते हैं। यही असंतुलन बच्चे के व्यक्तित्व की इमारत को सही आकार नहीं दे पाता है ।

 

क्रमशः

 

©मधुश्री, मुंबई, महाराष्ट्र                                                 

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