लेखक की कलम से

तुम ….

 

तुम जो हो तुम ही रहना

मैं जो हूँ मुझको रहने देना

खुद को इस कदर न गिराना

कि खुद को उठा भी न सको

कभी मिल भी जाएं नजरें

तो ईतना भी न मिलाना

कि नजरों को नजरों से

मिला भी न सको …

 

 

 

कूडेदान का सच  ….

 

 

झाँक कर देखा कूड़ादान

तो वो मुस्कराता नज़र आ रहा था।

ऐसा लग रहा था जैसे वो खिल्ली उड़ा रहा हो

फेके गये कचरे से गंध आ रही थी

मगर वो गंध उस कचरे की नहीं

समाज के सोच की गंध थी

सारा खूड़ा एक दूसरे से चिपक कर

प्यार करते और बात करते दिख रहा था।

मुझे तो फेक दिया नहीं फेका तो अपने

गंदे मन की सोच को

और नहीं फेका तो उस ईष्या और लालच को

जिसके कारण घरों में रोग पनप रहे हैं

एक दूसरे की चुगलियों के

नहीं फेका समाज ने उस चाटुकारिता को

जो सांसद में कुर्सियां चरमरा रही है

ईमानदारी की

बाज़ार की जगमगाहट में फल फूल रही है

आदमी की हिंसा गंदे उसूलों की

ईमान अपनी जगह खड़ा नहीं हो पा रहा है

लडखडा़ रहा है अपनी ही कमज़ोर टांगों पे

बेच रहा है रिश्तों को स्वार्थ की तराजू में

सफाई तो हो रही है

घरों की, आत्मा और मन की नहीं

इंसान की इस दुर्गधं भरी सोच पर

गुनगुना रहा है कूडादान

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान

कितना बदल गया इंसान

आवाज़ें भी रोते रोते अपना सुर बदल लेती हैं

कितनी कलाएँ है आदमी में

हर रंग में रगनें की

मगर नहीं है तो वो कला अपने को स्थिर रखने की

बैरे हो गये हैं कान से

सुनाई दे तो रहा है सब

मगर सुन नहीं पा रहे हैं लालच की दुर्गंध में

सपनों की चाहत में

अपनों की हत्या कर रहे हैं

हत्यारा और कोई नहीं

अपनी ही सोच है जो पकड़ में नहीं आ रही है।

 

©शिखा सिंह, फर्रुखाबाद, यूपी                                       

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