लेखक की कलम से

मैं क्यों नहीं …

मैं क्यों नहीं?

कच्ची मिट्टी को आकृति दे,जी भररंगा सकती!

धरे उसे कदमों सह अपनी धुन में इतरा सकती!

 

मैं क्यों नहीं?

आकांक्षा-इंद्रधनुषी पंख रंगा सकती!

जिसे धरे नवदौर,नवदिशा पा सकती!

जहाँ मुक्त मुस्कान कंठ सँवार सकती!

 

मैं क्यों नहीं?

समुद्री तीरे भाव-लहरों को अपना सकती!

चंचल लहरों से खुद को जी भर भीगा सकती!

 

मैं क्यों नहीं?

मनचाहे परिधान में खुद का रूप निहार सकती!

अनुपम सौंदर्य छटा से खुद को अद्भुत पा सकती!

 

मैं क्यों नहीं?

उमड़-घुमड़ वर्षा-मेघ करा सकती!

रिमझिम में गीत मधुर गा सकती!

हाथ धरे प्रकृति, नव सृष्टि करा सकती!

 

मैं क्यों नहीं?

क्षणभंगुर प्रश्नों के बाण खुद पर चला सकती!

क्षणिक चक्रों से खुद को अनुगृहीत करा सकती!

 

मैं क्यों आखिर अज्ञात, अदृश्य बंधनों में खुद को बंधा सा पाती हूँ?

क्यों आखिर क्यों ?

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                            

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