लेखक की कलम से

कहां सुनता है कोई …

कहां सुनता है कोई?

चाहे बुदबुदाकर कहे या धीरे से कहे,

चाहे चीखकर कहे या जोर-जोर से कहे,

जो सुनना नहीं चाहते,

वे हर हाल में नहीं सुनते,

उन्हें समझाकर कहे या लाचारी बता कर कहे,

वे नहीं समझते आपकी

दुर्दशा को,मजबूरी को,

मनःस्थिति को या अंतस परिस्थिति को,

आप बार-बार क्यों बोल रहे,

अपने मन के पिटारे को खोल रहे,

बहरहाल,

स्थिति खुद सुधारे!

याचक की भांति याचना कब तक करेगें?

समाधान के कपाट स्वयं खोलें,

श्रृंखलाओं के परत दर परत स्वयं आजमायें,

तभी तो कंटकहीन मन होगा,

ना बाधा,न विघ्न होगा,

स्वयं प्रसन्न होगें,

तो घर,कुनबा,परिवार,कुटुंब,जग,संसार सब प्रसन्न होगा!

अपनी फटे की तुरपाई खुद ही को करनी होगी न?

 

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                            

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