लेखक की कलम से

ये कैसी विडम्बना है …

 

कैसा फर्क है मेरे साथ ।

क्या मैं अछूत हूँ

जो मेरे पैदा होने पर क्यों  नहीं खुश होते हैं लोग।

क्यों नहीं मेरे होने पर बजते हैं ढोल

क्यों मृत आत्मा को बेटा के ही 

हाथों पवित्र किया जाता है।

क्यों उसी के हाथों मुक्ति मिलती है

मैं भी तो उसी कोख का एक हिस्सा हूं

 फिर ये अन्तर क्यों

देवी की तरह पूजी जातीं हूं मैं 

फिर भी मैं अछूत क्यों।

वो मेरी कोख से जनी है

मेरी ही जैसी है।

फिर दो रुप दो हिस्से कैसे 

जो मैं ही करती हूं

क्यों किया अन्तर दोनों में

पीड़ा तो बराबर सही

दोनों की।

कैसा ये अंतरद्वन्द्व है

जो मुझे देखने नहीं देता

बादलों के आवागमन ने

मुझे सच होने को छुपा दिया

मेरी कोख में ही तो है

नन्ना या नन्ही को सम्हालने वाली

फिर मैं ही तो करती हूं लान्छित खुद को

जो खुद के साथ नहीं हूं मैं …

©शिखा सिंह, फर्रुखाबाद, यूपी

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