वैधव्य-एक आत्मयुद्ध…
तन मन में है आग लगी इस पूनों वाली रात में
और वर्जना आदर्शों की खड़ी राह पर घात में
अभी-अभी कुछ सपने देखे थे हमने
अभी-अभी तो मन थोड़ा बौराया था
अभी अभी भँवरा पराग पर बैठा था
अभी अभी फूलों का रस ले पाया था
अभी अभी तो मधु बूंदों का स्वाद चखा
अभी अभी तितली ने पंख पसारे थे
अभी अभी थी उड़ने मन मे ललक जगी
अभी अभी ही रंगीं स्वप्न हमारे थे
नियति नटी ने कैसा कौतुक हाय! रचा
छीन लिए क्यों अपने सब स्वर्णिम सपने
महक,पुष्प,केशर,पराग सब रूठ गए
अभी अभी तो ये सब के सब थे अपने
खुद का खुद से युद्ध छिड़ा कैसे जीतें
हम खुद से ही खुद कैसे लड़ पाएंगे
जीत गए बाजी तो फिर हारेगा कौन
हम इसका परिणाम कहाँ से लाएंगे?
किन्तु निराशा का दामन हम क्यों थामें
जीवन यह बहुमूल्य मिला है अभी-अभी
स्मृतियाँ तो सिर्फ दंश ही देतीं हैं
श्रेयस्कर है जी लें जीवन अभी-अभी।
-दिलबाग राज