लेखक की कलम से
नदी के दो किनारे …
हम नदी के दो किनारे
साथ चलते हैं
मिल न पाते हैं विरह मे
हृदय जलते हैं।
नाव नाविक ले खड़ा है
बीच धारे पर
पर खड़ा प्रियतम हमारा
उस किनारे पर।
किन्तु आशा के अभी भी
दीप जलते हैं
हम नदी के दो किनारे
साथ चलते हैं।
प्रेम जिसने भी किया वे
मिल नहीं पाए
इस डगर पर जो बढ़ा
वे सिर्फ पछताए।
कामनाओं के हृदय मे
ख़्वाब पलते हैं
हम नदी के दो किनारे
साथ चलते हैं।
ये नयन दोनों किनारों
से निहारेंगे
मौन ध्वनि से प्रेम की
मिलकर पुकारेंगे।
हीर-रांझा की तरह के
दर्द पलते हैं
हम नदी के दो किनारे
साथ चलते हैं।
दर्द हमको जो मिला
स्वीकार कर लेंगे
विरह की इस अग्नि को भी
पार कर लेंगे।
पास सागर के चलो
अब वहीं मिलते हैं
हम नदी के दो किनारे
साथ चलते हैं।
©आशा जोशी